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१३६ संयम तरंग
॥पद चोथु ॥ ॥ राग भैरवी ॥ गगन मंडलगत परम अरुण रुचि जायो रे ॥ ग ॥ टेक ॥ चंद कहुं तो चंदन निरखं, तरणि पिण न जनायो रे । ग ॥ तेल सिखा बिन दीप न निरखं, जगमग रुचि सुखदायो रे ॥ ग०॥ १॥ धन समीर परमुख उपाधि, रहित रुचिर दरसायो रे ॥ ग ॥ सब जग व्यापी पांचहि जाते, पण नहिं नाव रमायो रे ॥ गण॥२॥ पंडित योगी सघले थाके, निज हठ पख लपटायो रे ॥ ग ॥ श्रापहिं निरखे श्रापहिं जाने, सहज समाधि जगायो रे ॥ गण ॥३॥ तव घर घरकी जरमना.मे. टी, सहज रूप परखायो रे ॥ ग ॥ निधि संयम झानानंद योगी,ज्योति निरख दरखायोरे॥ग ॥४॥
॥पद पांचमुं॥ - ॥राग वेलावल ॥ निज परिणति चित्त धारियें, पर परणति तज सार॥नि टेक ॥ जबलग रहे पर परिणति, तबलग जव चम धार पनि॥१॥अपनी पूंजी लख नहिं, कुमता संग चित्त खोल ॥ राजपूत होय परमतें, ते कायर सममोल निणा॥ किंपाक
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