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ज्ञानविलास ॥३॥ तनमय एकंत अंगे लपट्यो, रयणे नींद बिकायो। नणदी पण हसी दोडी आई, मोकुं तो मचकायो ॥ सू०॥४॥ जोर नयो उठ नाग्यो योगी, ना जानुं विगमायो॥ सखि कहे स्वामिनि कुमलानी, मौनकरी सरमायो॥ सू० ॥ ५॥ तिन अवसर निपदी तिहां बोली, हसकर करवत लायो॥रातें निविचारित नित्यसाथे, ज्ञानानंद खेलायो॥सू॥६॥
॥पद बाशपमुं॥ ॥राग बिहाग ॥ मेरो पिया सखि देख मनावो। मे ॥ टेक ॥ पिया बिना रंग महेल बिच, सूनी सहेज रहायो ॥ खान पान उःखदायक मोकुं, क्यु कर जिय समजायो । मे ॥१॥ शोल श्रृंगार ए विरह व्यथायें, केसें रयण विलायों ॥ अंग अंग बिन जंगुर माहरो, तेसें कहुं चित्त लायो । मे ॥२॥ इतने चारित मितके संगें, ज्ञानानंद पिया पायो । गरीषम तापें जिम जल बरखन, सेज धरी मचकायो । मे ॥३॥ इति ॥
॥पद त्रेशपमुं॥ ॥ राग बिहाग ॥ तुं बालूराने क्युं मारे मूढ ॥
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