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१५२ ज्ञानविलास लावे रे ॥ प्या० ॥२॥ ध्यान ध्येय ग पारस रूप, ज्योतिरूप बरम नावे ॥केवलान्वयो ज्ञानी ते विष्णु, शिववासी शिव जावे रे॥प्या॥३॥ जोतिरूप साहेब तो गही, तिनसुंध्यान लगावो॥ निधि चारित्र ज्ञानानंद मूरति, ध्यान समाधि समावोरे॥प्या॥॥
॥पद सत्तावनमुं॥ ॥ राग महार ॥ देखो पिया श्रागम जहवेरी श्रायो, नाना नूखन लायो ॥ दे० ॥ टेक ॥ विनय कनकनो घाट बनायो, संयम रतन लगायो । नि. रमल ज्ञानको हीरक बिचमें, दरशन मानक नायो ॥ दे ॥१॥ खायक वैडूर्यनी पंगति, मौक्तिक ध्यान लगायो ॥ सुमिति गुपति लीलम विड्रम जिहां, शेष तत्व कहलायो ॥ दे ॥२॥ए सहु जूषण मोल श्रमोला, निरखत चित्त लोनायो । हरर्षे निधि चारित निहालो,झानानंद रमायो॥दे॥३॥इति
॥पद अठावनमुं॥ - ॥ राग मल्हार ॥ ज्ञानकी दृष्टि निहालो, वालम तुम अंतर दृष्टि निहालो ॥ वा ॥ टेक ॥ बाह्य दृष्टि देखे सो मूढा, कार्य नांहिं निहालो ॥ धरम
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