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११४. ज्ञानविलास निसि रंगमें ॥ सा ॥१॥ जिम जिम नोगे तिम तिम वाधे, क्युं नटके मति चंगमें ॥ मृगमद गंधे मृग सम नटके, घट अनुनव नहिं रगमें ॥ सा॥३॥ निर्मल गंगानीरजे लाधो, खारी कुण पीवे वाटमें ॥ तिनतें निजघर चारित संयुत, ज्ञानानंद जोवो गठमें ॥ सा ॥ ३ ॥ इति ॥
॥ पद तालीशमुं॥ ॥ राग कहेरबा ॥ सश्यां मुज गेंदा मंगायदे, गेंदाकी आश् हे बहार ॥ ए चाल ॥ यार मोह नारी मिलायदे, यारोंका याही दे मिलाप ॥ या ॥ टेक ॥ रूपवंत मोह नारी मिलायदे, उत्तम कुलगुण धाप ॥ या ॥१॥ पहिली नारी मुऊ नटकायो, परघर रमवा ढाल ॥या ॥ ते मुज दूतापण कहलायो, जग जन कहेते बिनाल ॥ या॥२॥ सुकुलीनी मोहे नारी मिले जो, तो श्रम चित्त सु. ख नाय ॥ या ॥ इतनी सुनकर खायक मंतरी, सुमतिनो मेलन कराय॥या० ॥३॥ घरनी संगें हरख धरीने, अंग रहे लपटाय ॥ या॥ चारित्र श्रादर ज्ञानानंदें, नवनिधि सहज लहाय ॥ या ॥४॥
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