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ज्ञानविलास अप्रतिबंध श्रागति गतिजासा ॥ वा ॥३॥ को संघयण जाके नहिं पावे, नहिं को संगण निवासा ॥ जां देखे तां एकही साहिब, जग नन परमितहे जसु वासा ॥ वा० ॥ ४ ॥ सो साहब तुं श्र पना मग्में, निरखो थिर चित्त ध्यान सुवासा ॥ चारित ज्ञानानंद निधि श्रादर, ज्योतिरूप निजनाव विकासा ॥ वा ॥ ५ ॥ इति ॥
॥पद वीशमुं॥ ॥राग रामकली ॥ जान न बामन काजी साधो, साहबकी गति है गी न्यारी ॥ जाण ॥ टेक ॥ उतपाद व्यय दरव परयायें, एक अनेक गहे पुन सारी ॥ सा ॥१॥ थिरता एक समय गत जाके, उतपाद व्यय पण ध्रुव सारी ॥थस्ति नास्ति नास्ति थास्तिकहे, आगम मांहें अव्य विचारी ॥सा॥२॥ ऐसी बात हम कबहुं न जानी, किनही मुख सुन नांहि संजारी॥ चरम नयन कर नहिं हम निरखी, अनुपम सादवाद गुण धारी ॥ सा ॥३॥ चज निखे सात नये कर, सातें नंग समाधि संजारी ॥ निधि चारित्र ज्ञानानंद अनुजव,
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