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ज्ञान विलास करे सुख खासा॥पंचाग्नि के ताप तपत दे, देह खाख रासनपर जासा ॥ कु० ॥५॥श्राप दरव श्रागल के राखे, देव नाम परसाद लगाता ॥ घंट बजाडी श्रापहिं खावे, नित नित साहिबकुं दिखलाता ॥ कुण्॥६॥ सरवंगी जे सबकुं माने, अपनी अपनी मतिमें बहुरा ॥ साहेब सब नटबाजी देखे, जग जनकारज वस जया बहुरा ॥ कु० ॥ ७॥ श्म कर नहिं को साहेब मिलता, जगमें पाखंग सबही कीता ॥ चारित्र ज्ञानानंद विना नहिं, समजो जगमें तन कोश् मीता ॥ कु० ॥ ॥ इति ॥
॥ पद उंगणीशमुं॥ ॥राग रामकली ॥ वालो माहरो क्यों चटके परवासा, तुजम निरखो साहेब वासा ॥ वा० ॥ टेक ॥ बिनु अनुजव ताकुं नहिं जाने, देखे कैसे उजासा ॥ वा ॥१॥ नहिं मानस नहिं नारी साहिब, नांहि नपुंसक बागम नासा ॥ पांचो रंग जाके नहिं दिसे, तामें नहिं गंध रसकावासा ॥ वाण ॥२॥ नहिं नारी नहिं हलका साहेब, नहिं रूखा नांहि चिकनासा ॥ शीता ताता जाके न पावे,
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