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प्रथमःसर्गः जारो अने लाखो एवा शुद्ध श्रावकोने जमाडवाथी जे पुण्य उत्पन्न थाप, तेथी पण अधिक पुण्य अहीं मुनिने दान देवाथी थाय . गमे तेवो पण चारित्रयुक्त मुनि, समकीती डाह्या माणसोये था तीर्थमा गौतम गणधरनी पेठे पूजवो. कर्मरूपी व्याधियी पीडायेला माणसोये, शोजाविनानां, मनने क्लेश करनारा, तथा शास्त्रार्थरूपी रस विनानां मुनिने पण, उत्तम औषधनी पेठे या तीर्थमां सेववो. गुरुनां श्राराधनथी वर्ग मले , तथा तेनां विराधनथी नर्क मले , एवी रीते बन्ने गती पुरुषी मले ,माटे पोतानी छाप्रमाणे प्राणीउये ग्रहण करवी. वली बीजां दानो तो कीर्ति, लक्ष्मी तथा सुख श्रादिकोने आपे , पण अजयपाननुं फल तो मुखथी कडं जाय तेम नथी. वली दीन श्रादिको प्रते श्रा तीर्थमा जे दान श्राप, ते स्वर्गनां सुखमाटे थाय , तथा नव प्रते प्रखंड लक्ष्मीनां कारणरूप मनुष्य जन्मने ते देना5 बे; वली ते दानयी था लोकमां सम्यक्त्व सहित राज्यनां लाजरूप फल थाय बे, तथा ने पुण्यानुबंधि पुण्य श्रापे, अने विशेष प्रकारे मोदनां लालने पण करे . वली अन्य स्थानकमां करेलुं पाप, उत्तम जाववालो प्राणी नहीं त्याग करे , पण या तीर्थमां करेलुं जे कर्म ते तो वज्रलेप सरखं थाय जे. वली था तीर्थमां आवीने कोश्नी निंदा, तथा परना सोहनुं चिंतवन करवू नहीं, तथा परस्त्रीनी लोलता राखवी नहीं, तेम परजव्य हरवाकी बुद्धि पण राखवी नहीं; तेम मित्थात्विऊनो संग करवो नहीं, तेउनां चनपर श्रका करवी नहीं, तेम तेउनी निंदा पण करवी नहीं, अने उनां शास्त्रोनो श्रादर पण करवो नहीं; वली अहीं वैरी प्रते वैर नाव राखवो नहीं, तथा कोश्ने मारी नांखवानी श्छा करवी नहीं, तथा घृत धादिक नव विगयोमां श्रासक्ति राखवी नहीं. कुलेश्यानुं चिंतवन करबु नही. एवी रीते सघलां पापकार्योने जाणीने, बुद्धिज , धन जे
एवा माणसोये, स्तुति करवा लायक एवां पुण्यनी श्वाथी अहीं जीअहिंसा करवी नहीं. वली जिनतीर्थादिनो योग होते बते, मिथ्यात्वमिश्रित जे क्रिया करे, तेने महापापी जाणवो, माटे तेने पुण्यनी प्रा. ति तो क्यांधीज होय ? वली मोदसुख मेलववामां उद्यमवंत थयेला माएसोये महातीर्थमां अनर्थ दंडोथी विरति, तत्वचिंतनमां आसक्ति, प्रजु
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