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शत्रुंजय मादात्म्य.
प्राणीने पुण्य प्रमाणरूप बे, केमके क्षीण तेजवालो सूर्य पण केटलोक वखत चलकी शके ? ) वली पुण्यश्रीज प्राणीने हमेशां सुख मले बे, ने तेज सुख पुण्यनो नाश थवाथी फेरनी पेठे दुःख आपे बे. वली जे हुं खागल हाथीने पण एक चामरनी पेठे श्राकाशमां उबालतो, ते हुंजे या स्त्रीची जीतायो !! एम विचारतां थकां तेने याद आव्युं के, अहो ! में राज्यनो त्याग कयों, मने महारोग थयो, अने वली कोधथी में गायने मारी !! वली हुं मृत्यु माटे तो निकलेलो ढुं, त्यारे वली हूं गायथी केम डर्यो ? वली एवी रीतें प्रसंगथी मलतुं मरण मुकीने, कुगतिने देनारुं गौहत्यानुं में पाप आचर्यु. वली पुण्य मेलव्या विना प्राणी दुःखी थाय बे, केमके, मूडी विनां बुद्धिवान माणस पण दुःखी चाय बे, हवे तो हुं आ पदारूपी समुद्रमां डुब्यो, माहे दवे हुं शुं करुं ? केमके, याग लाग्या पढी कुवो खोदवायी सुख यतुं नथी. एवी रीतें विचार करता एवा ते राजाने ते देवांगना कड़ेवा लागी के, अरे ! महापापी मूढ ! हवे दुःखी थयो को तुं शुं चिंतवे बे ? पेहेलां तो राज्यानां मदयी ध ध तें धर्मनो द्रोह कर्यो, अने हवे दुःख वखते तुं धर्म संजाले बे ! वली धर्म शिवाय बीजो कोइ पण प्रशंसवा लायक पदार्थ नथी, एम बुद्धिवानो माने बे, माटे अंतकाले पण धर्मनुं स्मरण करवायी ते जोहीने पण तारे बे. वली हे मूढ ! तारा चित्तमां धर्मबुद्धि नयी, पण रोगनी पीडाथी तुं पुण्यने याद करे बे, माटे में तारी परीक्षा करी बे; हुं तारी गोत्रदेवी अंबिका लुं, अने तारा सत्वनी परीक्षा माटे हुं गायनुं रूप करीने यावी हती; वली हे राजा ! हजु पण तारुं मन
धातुर बे, पण धर्मने रहेवा लायक, तथा समता रूपी अमृतथी जींजालुं नयी. माटे हवे तुं देशांतरोमां जइने तीर्थपर्यटन कर ? अने तने धर्माराधननो वखत हुं निश्चयें करीने कहीश; एम कहीने ते देवी अंत -
न य, त्यारे कंडु राजा विचारवा लाग्यो के हो ! हजु पण मारुं जाग्य जागतुं बे ! केमके गोत्रदेवी मने साक्षात नजरे पडी ! माटे हवे मारा मन रूपी हाथीने वश करवा माटे हुं यत्न करूं, के जेथी मोक्षरूप लक्ष्मी मने प्रत्यक्ष याय. एम विचारीने प्रजाते ते कोक दिशाप्रते चालवा लाग्यो, अने खष्ठ चित्तवालो दोवाथी ते कई पण दुःख पाम्यो
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