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पंचमःसर्गः
१७ कंचुकने धारण करीने, तथा करता हर्षाश्रुश्री जीजाश्ने, अने पोताना हाथोने मस्तकपर जोडीने चक्री नीचे प्रमाणे स्तुति करवा लाग्या के, हे प्रनु ! बुद्धिरूपी धनथी हीन थएलो हुं क्या ? अने गुणोना समुजतुल्य श्राप क्या ? पण आपनी जक्तिथी वाचाल थएलो हुँ आपनी स्तुति करुं . हे प्रजु ! तमो अनंत, तथा जगत्पूज्य बो, तेम अनादिरूपने जजनारा बो भने श्रापनां यथावस्थित स्वरूपने तो योगि पण जाणी शकता नथी. वली हे प्रनु ! श्रापे अन्योथी सर्वथा उर्जय तथा श्रात्मार्थनो नाश करनारा एवा रागादिक शत्रुउने तपरूपी हथीयारथी हण्या बे; वली बीजा नामधारी देवो तो रागादिकथी विडंबना पामेला बे; ते अंतरंग शत्रुठने नहीं मारतां बहारना शत्रुउँने मारे बे. वली हे अनंत ज्ञाननां माहात्म्यवाला एवा चारित्रमा चतुर ! तथा जगतमा प्रदीप समान; एवा हे नान्नेय जगवन् ! श्रापनाप्रते नमस्कार था ? वली हे प्रजु! थापे योगनां आवे अंगो एवीरीतें बनाव्यां ले के, ते आठे कर्मोनो नाश करे . वली श्रीशत्रुजय पर्वतप्रते रत्नसरखा, तथा श्री नाजिराजानां कुलमां सूर्यसरखा, तथा स्वर्ग अने मोदनां व्यापारवाला एवा आपनी हुं स्तुति करुं बु. वली हे प्रजु ! रत्नश्री जेम सुवर्ण, तथा तेजथी जेम सूर्य, तेम आपनाथी था शत्रुजय पर्वत अलंकृत थयो . वली हे प्रजु ! हुँथापनी पासेथी स्वर्गसुख, के मोद, के लक्ष्मी मागतो नथी; पण फक्त आपनां चरणकमलो मारा मनमां वसो ? एवी रीते स्तुति करीने चक्रीए मुकुटथी पृथ्वीतलने स्पर्श करीने श्रीयुगादीश प्रजुने पंचांग नमस्कार कर्यो. पनी श्री प्रथम प्रजुनी माता, तथा प्रथम सिक एवां मरुदेवी मातानी पूजा करीने चक्रीए तेमनी नीचे प्रमाणे स्तुति करवा मांडी के, श्रा जगतने शत्रुथी पराजव पामतुं जोश्ने, दया लावी जेणीए, अजयदान देनार प्रथम प्रजुने पोतानी कुदिमां धारण कर्या, एवां मरुदेवी माताने हुं बहुवार नमस्कार करुं बु. वली जेणीए अक्षय सुखवाला मोक्षमा वास करेलो , तथा चियूपपणाथी जगतनो स्वनाव जाण्यो बे, तथा महा अतिशयवंत, एवां ते मरुदेवी माताने हुँ त्रिविधे त्रिविधे नमस्कार करुं बु. वली तेणीना समान परम योगने धरनारी को पण स्त्री नथी; केम के, तेमणे हाथीना कुंजस्थलपर रहीने पण पोतानां
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