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शत्रुंजय माहात्म्य.
ताने पण गकारतो नहीं. ( पूर्वनां पुण्यथी पापीनी संपदा पण वृद्धि पामे बे, पण पालथी ते तपखलानी श्रग्मिनी शिखानी पेठे मूल सहित विनाश पामे बे.) ते राजा सुतो थको पण परस्त्री, अने परधननी इछा करनारो दतो, तथा धन मेलववानी इहाथी लोकोने हमेशां दुःख देतो हतो; प्रजावे उठीने लोकोने बोलावीने, निर्भय थयो थको तेमनी पा
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थी ते धन लेतो. ( राजा प्रायें करीने पुण्यथी संपूर्ण संपदावाला था, ने पढी तेज पुण्यनो द्वेष करे बे, माटे ते दुर्गतिमां जाय बे.) एवी रीतें चक्रवाक प्रते चंद्रनी पेठे, लोकोने दुःख देइने, अंते क्ष्यनां रोगवालो थयो थको मित्रनी पेठे ( सूनी पेठे ) ते धर्मने स्मरवा लाग्यो. ( ज्यांसुधि सर्व बाजुथी सुखधी प्राप्ति होय बे, त्यांसुधि मूढ माणस अहंकारमांज रहे बे, पण मृत्यु काल श्रावते ते धर्मनुं स्मरण करे बे.) एक दहाडो ते राजा क्रूर सेवकोथी सेवायेलो तथा परना जोहनी चिंताथी दुष्टाशयवालो थयो थको जेवामां सजामां बेठेलो बे, वामां आकाशमांथी कल्पवृक्षनां पत्रपर लखेलो एवो कोइके नाखेलो नीचेनो दिव्य श्लोक तेनी पासे चावीने पड्यो.
धर्मादधिगतैश्वर्यो, धर्ममेव निदंति यः ॥
कथं शुभगतिर्भावी, स स्वामिशेदपातकी ॥ १ ॥
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अर्थः- धर्मथी मलेलबे, संपदा जेने, एवो जे माणस तेज धर्मनो नाश करे बे, ते खामी द्रोहनां पापवालो माणस शुभ गतिवालो शी रीते या ? (अर्थात् न थाय . )
एव तनां श्लोकनेते राजाए हर्षथी वांच्यो, तथा तेनो अर्थ जाणीने ते मनमां नीचे प्रमाणे चिंतववा लाग्यो. अहो !! में महा मोह अने कपटवाला चित्तथी कष्ट पड्युं त्यांसुधि पण पापकार्य श्राचार्य, छाने हवे मने स्पष्ट ते फल्युं ! वली मत्स्य जेम मांसने, तेम में संपदाने मेलवीने मारा श्र श्रात्माने संसाररूपी जालमा फसाव्यो !!! वली जे राजा न्यायनां मार्गमां चाल्यो बे, ते बन्ने जवमां निर्जय थाय बे, तथा जे अन्यायने मार्गे चाले बे, ते प्रजा, कुल छाने राज्यनो नाश करनारो था बे. एवी रीते चिंतातुर थने ते महामूर्ख राजा रात्रियें राज्य त
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