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________________ ज्ञान बिन्दुपरिचय - नैरात्म्यभावना का निरास ४९ I है - नैरात्म्यभावना, ब्रह्मभावना और विवेकभावना | नैरात्म्यभावना बौद्धों की है। ब्रह्मभावना औपनिषद दर्शन की है। बाकी के सब दर्शन विवेकभावना मानते हैं । नैरात्म्यभावना वह है - जिस में यह विश्वास किया जाता है कि स्थिर आत्मा जैसी या द्रव्य जैसी कोई वस्तु है ही नहीं। जो कुछ है वह सब क्षणिक एवं अस्थिर ही है । इस के विपरीत ब्रह्मभावना वह है - जिस में यह विश्वास किया जाता है कि ब्रह्म अर्थात् आत्म-तत्व के सिवाय और कोई वस्तु पारमार्थिक नहीं है; तथा आत्म-तत्व भी भिन्न भिन्न नहीं है । विवेकभावना वह है - जो आत्मा और जड़ दोनों द्रव्यों का पारमार्थिक और स्वतन्त्र अस्तित्व मान कर चलती है । विवेकभावना को भेदभावना भी कह सकते हैं। क्यों कि उस में जड़ और चेतन के पारस्परिक भेद की तरह जड तत्व में तथा चेतन तत्व में भी भेद मानने का अवकाश है। उक्त तीनों भावनाएँ स्वरूप में एक दूसरे से बिलकुल विरुद्ध हैं, फिर भी उन के द्वारा उद्देश्य सिद्धि में कोई अन्तर नहीं पड़ता । नैरात्म्य भावना के समर्थक बौद्ध कहते हैं कि अगर आत्मा जैसी कोई स्थिर वस्तु हो तो उस पर स्नेह भी शाश्वत रहेगा; जिस से तृष्णामूलक सुख में राग और दुःख में द्वेष होता है । जब तक सुख- राग और दुःख-द्वेष हो तब तक प्रवृत्ति निवृत्ति - संसार का चक्र भी रुक नहीं सकता । अत एव जिसे संसार को छोड़ना हो उस के लिए सरल व मुख्य उपाय आत्माभिनिवेश छोड़ना ही है । बौद्ध दृष्टि के अनुसार सारे दोषों की जड़ केवल स्थिर आत्म-तत्व के स्वीकार में है। एक बार उस अभिनिवेश का सर्वथा परित्याग किया फिर तो न रहेगा बांस और न बजेगी बाँसुरी - अर्थात् जड़ के कट जाने से नेह और तृष्णामूलक संसारचक्र अपने आप बंध पड़ जायगा । 1 ब्रह्मभावना के समर्थक कहते हैं कि अज्ञान ही दुःख व संसार की जड़ है । हम आत्मभिन्न वस्तुओं को पारमार्थिक मान कर उन पर अहंत्व- ममत्व धारण करते हैं, और तभी रागद्वेषमूलक प्रवृत्ति निवृत्ति का चक्र चलता है । अगर हम ब्रह्मभिन्न वस्तुओं में पारमार्थिकत्व मानना छोड़ दें और एक मात्र ब्रह्मका ही पारमार्थिकत्व मान लें तब अज्ञानमूलक अहंत्व - ममत्व की बुद्धि नष्ट हो जाने से तन्मूलक राग-द्वेषजन्य प्रवृत्ति - निवृत्ति का चक्र अपने आप ही रुक जायगा । विवेकभावना के समर्थक कहते हैं कि आत्मा और जड़ दोनों में पारमार्थिकत्व बुद्धि हुई इतने मात्र से अहंत्व -ममत्व पैदा नहीं होता और न आत्मा को स्थिर मानने मात्र से रागद्वेषादि की प्रवृत्ति होती है। उन का मन्तव्य है कि आत्मा को आत्मरूप न समझना और अनात्मा को अनात्मरूप न समझना यह अज्ञान है । अत एव जड़में आत्मबुद्धि और आत्मामें जड़त्व की या शून्यत्व की बुद्धि करना यही अज्ञान है । इस अज्ञान को दूर करने के लिए विवेकभावना की आवश्यकता है । उपाध्यायजी जैन दृष्टि के अनुसार विवेकभावना के अवलंबी हैं । यद्यपि विवेकभावना के अबलंबी सांख्य-योग तथा न्याय-वैशेषिक के साथ जैन दर्शन का थोड़ा १ देखो, टिप्पण पृ० १०९ पं० ३० । 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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