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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय - नैरात्म्यभावना का निराम की कोई जरूरत नहीं है। शरीरगत दोषों के द्वारा या शरीरगत वैषम्य के द्वारा ही रागादि की उपपत्ति घटाई जा सकती है। यद्यपि उक्त तीनों मतों में से पहले ही को उपाध्यायजी ने बार्हस्पत्य अर्थात् चार्वाक मत कहा है; फिर भी विचार करने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उक्त तीनों मतों की आधारभूत मूल दृष्टि, पुनर्जन्म बिना माने ही वर्तमान शरीर का आश्रय ले कर विचार करने वाली होने से, असल में चार्वाक दृष्टि ही है । इसी दृष्टि का आश्रय ले कर चिकित्साशास्त्र प्रथम मत को उपस्थित करता है; जब कि कामशास्त्र दूसरे मत को उपस्थित करता है । तीसरा मत संभवतः हठयोग का है । उक्त तीनों की समालोचना कर के उपाध्यायजी ने यह बतलाया है कि राग, द्वेष और मोह के उपशमन तथा क्षय का सच्चा व मुख्य उपाय आध्यात्मिक अर्थात् ज्ञान-ध्यान द्वारा आत्मशुद्धि करना ही है; नहीं कि उक्त तीनों मतों के द्वारा प्रतिपादन किए जाने वाले मात्र भौतिक उपाय । प्रथम मत के पुरस्कर्ताओं ने वात, पित्त, कफ इन तीन धातुओं के साम्य सम्पादन को ही रागादि दोषों के शमन का उपाय माना है। दूसरे मत के स्थापकों ने समुचित कामसेवन आदि को ही रागादि दोषों का शमनोपाय माना है। तीसरे मत के समर्थकोंने पृथिवी, जल आदि तत्त्वों के समीकरण को ही रागादि दोषों का उपशमनोपाय माना है। उपाध्यायजी ने उक्त तीनों मतों की समालोचना में यही बतलाने की कोशिश की है कि समालोच्य तीनों मतों के द्वारा, जो जो रागादि के शमन का उपाय बतलाया जाता है वह वास्तव में राग आदि दोषों का शमन कर ही नहीं सकता। वे कहते हैं कि वात आदि धातुओं का कितना ही साम्य क्यों न सम्पादित किया जाय, समुचित कामसेवन आदि भी क्यों न किया जाय, पृथिवी आदि तत्त्वों का समीकरण भी क्यों न किया जाय, फिर भी जब तक आत्म शुद्धि नहीं होती तब तक राग-द्वेष आदि दोषों का प्रवाह भी सूख नहीं सकता। इस समालोचना से उपाध्यायजी ने पुनर्जन्मवादिसम्मत आध्यात्मिक मार्ग का ही समर्थन किया है। उपाध्यायजी की प्रस्तुत समालोचना कोई सर्वथा नयी वस्तु नहीं है । भारत वर्ष में आध्यात्मिक दृष्टि वाले भौतिक दृष्टि का निरास हजारों वर्ष पहले से करते आए हैं। वही उपाध्यायजीने भी किया है-पर शैली उनकी नयी है। 'शानबिन्दु' में उपाध्यायजी ने उपर्युक्त तीनों मतों की जो समालोचना की है वह धर्मकीर्ति के 'प्रमाणवार्तिक' और शान्तरक्षित के 'तत्त्वसंग्रह' में भी पायी जाती है। (५) नैरात्म्यभावना का निरास [६६९] पहले तुलना द्वारा यह दिखाया जा चुका है कि सभी आध्यात्मिक दर्शन भावना- ध्यान द्वारा ही अज्ञान का सर्वथा नाश और केवल ज्ञान की उत्पत्ति मानते हैं। जब सार्वश्य प्राप्ति के लिए भावना आवश्यक है तब यह मी विचार करना प्राप्त है कि वह भावना कैसी अर्थात् किंविषयक १ । भावना के स्वरूप विषयक प्रम का जवाब सब का एक नहीं है । दार्शनिक शास्त्रों में पाई जाने वाली भावना संक्षेप में तीन प्रकार की १ नो, निप्पण, पृ. १०९ पं० २६ से। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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