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ज्ञान विन्दुपरिचय - केवलज्ञान के उत्पादक कारणों का प्रश्न
होते हुए भी उस के उत्पादक कारण रूप से एक मात्र वेदशास्त्र का स्वीकार करने में कोई भी मतभेद नहीं ।
(३) केवलज्ञान के उत्पादक कारणों का प्रश्न
[ ५९ ] केवल ज्ञान के उत्पादक कारण अनेक हैं, जैसे- भावना, अदृष्ट, विशिष्ट शब्द और आवरणक्षय आदि । इन में किसी एक को प्राधान्य और बाकी को अप्राधान्य दे कर विभिन्न दार्शनिकों ने केवल ज्ञान की उत्पत्ति के जुदे जुड़े कारण स्थापित किए हैं । उदाहरणार्थ - सांख्ययोग और बौद्ध दर्शन केवल ज्ञान के जनकरूप से भावना का प्रतिपादन करते हैं, जब कि न्याय-वैशेषिक दर्शन योगज अदृष्ट को केवलज्ञानजनक बतलाते हैं । वेदान्त 'तत्त्वमसि' जैसे महावाक्य को केवल ज्ञान का जनक मानता है, जब कि जैन दर्शन केवलज्ञानजनकरूप से आवरण-कर्म-क्षय का ही स्थापन करता है । उपाध्यायजी ने भी प्रस्तुत ग्रन्थ में कर्मक्षय को ही केवलज्ञानजनक स्थापित करने के लिए अन्य पक्षों का निरास किया है ।
मीमांसा जो मूल में केवल ज्ञान के ही विरुद्ध है उस ने सर्वज्ञत्व का असंभव दिखाने के लिए भावनामूलक' सर्वज्ञत्ववादी के सामने यह दलील की है कि - भावनाजन्य ज्ञान यथार्थ हो ही नहीं सकता; जैसा कि कामुक व्यक्ति का भावनामूलक स्वामिक कामिनीसाक्षात्कार । [ १६१] दूसरे यह कि भावनाज्ञान परोक्ष होने से अपरोक्ष सार्वश्य का जनक भी नहीं हो सकता । तीसरे यह कि अगर भावना को सार्वश्यजनक माना जाय तो एक अधिक प्रमाण भी [ पृ० २०. पं० २३ ] मानना पड़ेगा । मीमांसा के द्वारा दिये गए उक्त तीनों दोषों में से पहले दो दोषों का उद्धार तो बौद्ध, सांख्य-योग आदि सभी भावनाकारणवादी एक-सा करते हैं, जब कि उपाध्यायजी उक्त तीनों दोषों का उद्धार अपना सिद्धान्तभेद [ ९६२ ] बतला कर ही करते हैं । वे ज्ञानबिन्दु में कर्मक्षय पक्ष पर ही भार दे कर कहते हैं कि वास्तव में तो सार्वज्ञय का कारण है कर्मक्षय ही । कर्मक्षय को प्रधान मानने में उन का अभिप्राय यह है कि वही केवल ज्ञान की उत्पत्ति का अव्यवहित कारण है । उन्हों ने भावना को कारण नहीं माना, सो अप्राधान्य की दृष्टि से । वे स्पष्ट कहते हैं कि - भावना जो शुकुध्यान का ही नामान्तर है वह केवल ज्ञान की उत्पादक अवश्य है; पर कर्मक्षय के द्वारा ही । अत एव भावना केवल ज्ञान का अव्यवहित कारण न होने से कर्मक्षय की अपेक्षा अप्रधान ही है । जिस युक्ति से उन्हों ने भावनाकारणवाद का निरास किया है उसी युक्ति से उन्हों ने अदृष्टकारणवाद का भी निरास [ ६३ ] किया है । वे कहते हैं कि अगर योगजन्य अदृष्ट सार्वश्य का कारण हो तब भी वह कर्मरूप प्रतिबन्धक के नाश के सिवाय सार्वज्ञ्य पैदा नहीं कर सकता । ऐसी हालत में अदृष्ट की अपेक्षा कर्मक्षय ही केवल ज्ञान की उत्पत्ति में प्रधान कारण सिद्ध होता है । शब्दकारणवाद का निरास उपाध्यायजी ने यही कह कर किया है कि-सहकारी कारण कैसे ही क्यों न हों, पर परोक्ष ज्ञान का जनक शब्द कभी उन के सहकार से अपरोक्ष ज्ञान का जनक नहीं बन सकता ।
१ देखो, टिप्पण, पृ० १०८ पं० २३ से ।
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