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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय- केवलज्ञान का परिष्कृत लक्षण पूर्णरूपेण लेता है । इस तरह उपर्युक्त सभी दर्शन अपनी अपनी परंपरा के अनुसार माने जाने वाले सब पदार्थों को ले कर उन का पूर्ण साक्षात्कार मानते हैं, और तदनुसारी लक्षण भी करते हैं । पर इस लक्षणगत उक्त सर्व विषयकत्व तथा साक्षात्कारत्व के विरुद्ध मीमांसक की सख्त आपत्ति है। मीमांसक सर्वज्ञवादियों से कहता है कि- अगर सर्वज्ञ का तुम लोग नीचे लिखे पांच अर्थों में से कोई भी अर्थ करो तो तुम्हारे विरुद्ध मेरी आपत्ति नहीं । अगर तुम लोग यह कहो कि- सर्वज्ञ का मानी है 'सर्व' शब्द को जानने वाला (१); या यह कहो कि- सर्वज्ञ शब्द से हमारा अभिप्राय है तेल, पानी आदि किसी एक चीज को पूर्ण रूपेण जानना (२); या यह कहो कि- सर्वज्ञ शब्द से हमारा मतलब है सारे जगत को मात्र सामान्य रूपेण जानना (३); या यह कहो कि- सर्वज्ञ शब्द का अर्थ है हमारी अपनी अपनी परंपरा में जो जो तत्त्व शास्त्रसिद्ध हैं उन का शास्त्र द्वारा पूर्णज्ञान (४); या यह कहो किसर्वज्ञ शब्द से हमारा तात्पर्य केवल इतना ही है कि जो जो वस्तु, जिस जिस प्रत्यक्ष, अनुमानादि प्रमाण गम्य है उन सब वस्तुओं को उन के ग्राहक सब प्रमाणों के द्वारा यथासंभव जानना (५); वही सर्वज्ञत्व है। इन पांचों में से तो किसी पक्ष के सामने मीमांसक की आपत्ति नहीं; क्यों कि मीमांसक उक्त पांचों पक्षों के स्वीकार के द्वारा फलित होने वाला सर्वज्ञत्व मानता ही है । उस की आपत्ति है तो इस पर कि ऐसा कोई साक्षात्कार (प्रत्यक्ष ) हो नहीं सकता जो जगत् के संपूर्ण पदार्थों को पूर्णरूपेण क्रम से या युगपत् जान सके । मीमांसक को साक्षात्कारत्व मान्य है, पर वह असर्व विषयक ज्ञान में । उसे सर्वविषयकत्व भी अभिप्रेत है, पर वह शास्त्रजन्य परोक्ष ज्ञान ही में। इस तरह केवल ज्ञान के स्वरूप के विरुद्ध सब से प्रबल और पुरानी आपत्ति उठाने वाला है मीमांसक । उस को सभी सर्वज्ञवादियों ने अपने अपने ढंगसे जवाब दिया है। उपाध्यायजी ने भी केवल ज्ञान के स्वरूप का परिष्कृत लक्षण करके, उस विषय में मीमांसकसमत स्वरूप के विरुद्ध ही जैन मन्तव्य है, यह बात बतलाई है। ___ यहाँ प्रसंगवश एक बात और भी जान लेनी जरूरी है। वह यह कि यद्यपि वेदान्त दर्शन भी अन्य सर्वज्ञवादियों की तरह सर्व- पूर्ण ब्रह्मविषयक साक्षात्कार मान कर अपने को सर्वसाक्षात्कारात्मक केवल ज्ञान का मानने वाला बतलाता है और मीमांसक के मन्तव्य से जुदा पडता है। फिर भी एक मुद्दे पर मीमांसक और वेदान्त की एकवाक्यता है। वह मुद्दा है शास्त्रसापेक्षता का। मीमांसक कहता है कि सर्वविषयक परोक्ष ज्ञान भी शाख के सिवाय हो नहीं सकता। वेदान्त ब्रह्मसाक्षात्काररूप सर्वसाक्षात्कार को मान कर भी उसी बात को कहता है। क्यों कि वेदान्त का मत है कि ब्रह्मज्ञान भले ही साक्षात्काररूप हो, पर उस का संभव वेदान्तशास्त्र के सिवाय नहीं है। इस तरह मूल में एक ही वेदपथ पर प्रस्थित मीमांसक और वेदान्त का केवल ज्ञान के स्वरूप के विषय में मतभेद १देखो, तत्त्वसंग्रह, का. ३१२९ से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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