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ज्ञानबिन्दुपरिचय-शान की सामान्य चर्चा को एकसा सम्मत है। 'पूज्यपाद ने अपनी लाक्षणिक शैली में क्षयोपशम का स्वरूप अति संक्षेप में ही स्पष्ट किया है। राजवार्तिककार ने उस पर कुछ और विशेष प्रकाश डाला है। परंतु इस विषय पर जितना और जैसा विस्तृत तथा विशद वर्णन श्वेताम्बरीय प्रन्थों में खास कर मलयगिरीय टीकाओं में पाया जाता है उतना और वैसा विस्तृत व विशद वर्णन हमने अभी तक किसी भी दिगम्बरीय प्राचीन-अर्वाचीन ग्रन्थ में नहीं देखा । जो कुछ हो पर श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों परंपराओं का प्रस्तुत विषय में विचार और परिभाषा का ऐक्य सूचित करता है कि क्षयोपशमविषयक प्रक्रिया अन्य कई प्रक्रियाओं की तरह बहुत पुरानी है और उस को जैन तत्त्वज्ञों ने ही इस रूप में इतना अधिक विकसित किया है।
क्षयोपशम की प्रक्रिया का मुख्य वक्तव्य इतना ही है कि अध्यवसाय की विविधता ही कर्मगत विविधता का कारण है। जैसी जैसी रागद्वेषादिक की तीव्रता या मन्दता पैसा वैसा ही कर्म की विपाकजनक शक्ति का-रस का तीव्रत्व या मन्दत्व । कर्म की शुभाशुभता के तारतम्य का आधार एक मात्र अध्यवसाय की शुद्धि तथा अशुद्धि का तारतम्य ही है। जप अध्यवसाय में संक्लेश की मात्रा तीव्र हो तब तज्जन्य अशुभ कर्म में अशुभता तीव्र होती है और तजन्य शुभ कर्म में शुभता मन्द होती है । इस के विपरीत जब अध्यवसाय में विशुद्धि की मात्रा बढ़ने के कारण संक्लेश की मात्रा मन्द हो जाती है तब तजन्य शुभ कर्म में शुभता की मात्रा तो तीव्र होती है और तज्जन्य अशुभ कर्म में अशुभता मन्द हो जाती है। अध्यवसाय का ऐसा मी बल है जिससे कि कुछ तीव्रतमविपाकी काश का तो उदय के द्वारा ही निर्मूल नाश हो जाता है और कुछ वैसे ही कांश विद्यमान होते हुए भी अकिश्चित्कर बन जाते हैं, तथा मन्दविपाकी काश ही अनुभव में आते हैं। यही स्थिति क्षयोपशम की है।
ऊपर कर्मशक्ति और उस के कारण के सम्बन्ध में जो जैन सिद्धान्त बतलाया है वह शब्दान्तर से और रूपान्तर से (संक्षेप में ही सही) सभी पुनर्जन्मवादी दर्शनान्तरों में पाया जाता है। न्याय-वैशेषिक, सांख्य और बौद्धदर्शनों में यह स्पष्ट बतलाया है कि जैसी राग-द्वेष-मोहरूप कारण की तीव्रता-मन्दता वैसी धर्माधर्म या कर्मसंस्कारों की तीव्रता-मन्दता । वेदान्तदर्शन भी जैनसम्मत कर्म की तीव्र-मन्द शक्ति की तरह अज्ञान गत नानाविध तीव्र-मन्द शक्तियों का वर्णन करता है, जो तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति के पहले से ले कर तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति के बाद भी यथासंभव काम करती रहती हैं। इतर सब दर्शनों की अपेक्षा उक्त विषय में जैन दर्शन के साथ योग दर्शन का अधिक साम्य है। योग दर्शन में छेशों की जो प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार-ये चार अवस्थाएँ बतलाई है वे जैन परिभाषा के अनुसार कर्म की सत्तागत, क्षायोपशामिक और औदायिक अवस्थाएँ हैं । अतएव खुद उपाध्यायजी ने पातञ्जलयोगसूत्रों के ऊपर की अपनी संक्षिप्त वृत्ति में पतञ्जलि और उसके भाष्यकार की कर्मविषयक विचारसरणी तथा
१देखो, टिप्पण पृ. ६९. पं० ८ से।
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