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ज्ञानबिन्दुपरिवय-ज्ञान की सामान्य पर्चा पर्यायों का भी अस्तित्व अगर देहव्यापारादिरूप उपाधिसहित है, तो उन पूर्ण पर्यायों का मी अस्तित्व मुक्ति में (जब कि देहादि उपाधि नहीं है ) नहीं रहता । अर्थात् उस समय वे पूर्ण पर्याय होते तो हैं, पर सोपाधिक नहीं; जैसे कि सदेह क्षायिकचारित्र भी मुक्ति में नहीं माना जाता । उपाध्यायजी ने उक्त चर्चा से यह बतलाया है कि आत्मपर्याय वैभाविक-उदयजन्य हो या स्वाभाविक पर अगर वे सोपाधिक है तो अपनी अपनी उपाधि हटने पर वे नहीं रहते । मुक्त दशा में सभी पर्याय सब प्रकार की बाह्य उपाधि से मुक्त ही माने जाते हैं।
___ दार्शनिक परिभाषाओं की तुलना ___ उपाध्यायजी ने जैनप्रक्रिया अनुसारी जो भाव जैन परिभाषा में बतलाया है वही भाव परिभाषाभेद से इतर भारतीय दर्शनों में भी यथावत् देखा जाता है। समी दर्शन आध्यात्मिक विकासक्रम बतलाते हुए संक्षेप में उत्कट मुमुक्षा, जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति इन तीन अवस्थाओं को समान रूप से मानते हैं, और वे जीवन्मुक्त स्थिति में, जब कि लेश और मोहका सर्वथा अभाव रहता है तथा पूर्ण ज्ञान पाया जाता है, विपाकारम्भी आयुष आदि कर्म की उपाधि से देहधारण और जीवन का अस्तित्व मानते हैं तथा जब विदेह मुक्ति प्राप्त होती है सब उक्त आयुष आदि कर्म की उपाधि सर्वथा म रहने से तन्जन्य देहधारण आदि कार्य का अभाव मानते हैं । उक्त तीन अवस्थाओं को स्पष्ट रूप से जतानेवाली दार्शनिक परिभाषाओं की तुलना इस प्रकार है१ उत्कट मुमुक्षा २जीवन्मुक्ति
३ विदेहमुक्ति १ जैन तात्विक धर्मसंन्यास, सयोगि-अयोगि
मुक्ति, सिद्धत्व । क्षपक श्रेणी। गुणस्थान; सर्वज्ञत्व, अर्हत्व । २ सांख्य-योग परवैराग्य, प्रसंख्यान, असंप्रज्ञात, धर्ममेघ । स्वरूपप्रतिष्ठचिति, संप्रज्ञात ।
कैवल्य। ३ बौद्ध केशापरणहामि, शेयावरणहानि, निर्वाण, निराश्रवनैरात्म्यदर्शन। सर्वज्ञत्व, महत्त्व।
चित्तसंतति । ४ न्याय-वैशेषिक युक्तयोगी वियुक्तयोगी
अपवर्ग ५ वेदान्त निर्विकल्पक समाधि प्रह्मसाक्षात्कार,
खरूपलाम, प्रझनिष्ठत्व।
मुक्ति। दार्शनिक इतिहास से जान पडता है कि हर एक दर्शन की अपनी अपनी उक्त परिभाषा बहुत पुरानी है । अतएव उन से बोधित होने वाला विचारस्रोत तो और भी पुराना समझना चाहिए।
[८] उपाध्यायजी ने झान सामान्य की चर्चा का उपसंहार करते हुए ज्ञाननिरूपण में बार बार आने वाले क्षयोपशम शब्द का भाव बतलाया है। एक मात्र जैन साहित्य में पाये जाने वाले क्षयोपशम शब्द का विवरण उन्हों ने आईत मत के रहस्यज्ञाताओं की प्रक्रिया के अनुसार उसी की परिभाषा में किया है। उन्हों ने अति विस्तृत और अति विशद वर्णन के द्वारा जो रहस्य प्रकट किया है वह दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों परंपराओं
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