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________________ ८ ज्ञानविन्दुपरिचय - २. विषय विवेचन परंपरा में, आर्यरक्षितीय चतुर्विध विभाग की तरह, उपेक्षा ही हुई या उस का विशेष आदर हुआ ? - यह प्रश्न अवश्य होता है, जिस पर हम आगे जा कर कुछ कहेंगे । (६) छठी भूमिका, वि० ७ वीं शताब्दी वाले जिनभद्र गणी की है। प्राचीन समय से कर्मशास्त्र तथा आगम की परंपरा के अनुसार जो मति, श्रुत आदि पाँच ज्ञानों का विचार जैन परंपरा में प्रचलित था, और जिस पर नियुक्तिकार तथा प्राचीन अन्य व्याख्याकारों ने एवं नन्दी जैसे आगम के प्रणेताओं ने, अपनी अपनी दृष्टि व शक्ति के अनुसार, बहुत कुछ कोटिक्रम भी बढ़ाया था, उसी विचार भूमिका का आश्रय ले कर क्षमाश्रमण जिनभद्र ने अपने विशाल प्रन्थ 'विशेषावश्यकभाष्य' में पवविध ज्ञान की आचूडान्त साङ्गोपाङ्ग मीमांसा ' की । और उसी आगम सम्मत पचविध ज्ञानों पर तर्कदृष्टि से आगमप्रणाली का समर्थ करने वाला गहरा प्रकाश डाला । 'तत्वार्थसूत्र' पर व्याख्या लिखते समय, पूज्यपाद देवनन्दी और भट्टारक अकलंक ने भी पवविध ज्ञान के समर्थन में, मुख्यतया तर्कप्रणाली का ही अवलम्बन लिया है। क्षमाश्रमण की इस विकास भूमिका को तर्कोपजीवी आगमभूमिका कहनी चाहिए, क्यों कि उन्हों ने किसी भी जैन तार्किक से कम तार्किकता नहीं दिखाई; फिर भी उन का सारा तर्कबल आगमिक सीमाओं के घेरे में ही घिरा रहा- जैसा कि कुमारिल तथा शंकराचार्य का सारा तर्कबल श्रुति की सीमाओं के घेरे में ही सीमित रहा । क्षमाश्रमण ने अपने इस विशिष्ट आवश्यक भाष्य में ज्ञानों के बारे में उतनी अधिक विचारसामग्री व्यवस्थित की है कि जो आगे के सभी श्वेताम्बर प्रन्थप्रणेताओं के लिए मुख्य आधारभूत बनी हुई है । उपाध्यायजी तो जब कभी जिस किसी प्रणाली से ज्ञानों का निरूपण करते हैं तब मानों क्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाष्य को अपने मन में पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित कर छेते हैं' । प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु में भी उपाध्यायजी ने वही किया है । (७) सातवीं भूमिका, भट्ट अकलंक की है, जो विक्रमीय आठवीं शताब्दीके विद्वान् हैं । ज्ञानविचारके विकासक्षेत्र में भट्टारक अकलंक का प्रयत्न बहुमुखी है। इस बारे में उन के तीन प्रयत्न विशेष उल्लेख योग्य हैं। पहला प्रयत्न तत्वार्थसूत्राबलम्बी होने से प्रधानतया पराश्रित है। दूसरा प्रयत्न सिद्धसेनीय 'न्यायावतार' का प्रतिबिम्बग्राही कहा जा सकता है, फिर मी उस में उनकी विशिष्ट स्वतन्त्रता स्पष्ट है। तीसरा प्रयत्न 'लघीयस्त्रय' और खास कर 'प्रमाणसंग्रह' में है, जिसे उन की एकमात्र निजी सूझ कहना ठीक है । उमास्वाति ने, मीमांसक आदि सम्मत अनेक प्रमाणों का समावेश मति और श्रुत में होता है-ऐसा सामान्य ही कथन किया था; और पूज्यपाद ने भी वैसा ही सामान्य कथन किया था । परन्तु, अकलंक ने उस से आगे बढ़ कर विशेष विश्लेषण के द्वारा 'राजवार्त्तिक' में यह बतलाया कि दर्शनान्तरीय वे सब प्रमाण, किस तरह अनक्षर और अक्षरश्रुत में समाविष्ट ६ देखो, १ विशेष वश्यक भाष्य में ज्ञानपकाधिकारने ही ८४० गाथाएँ जितना बडा भाग रोक रखा है। कोट्याचार्य की टीका के अनुसार विशेषावश्यक की सब मिल कर ४३४६ गाथाएँ हैं । २ पाठकों को इस बात की प्रतीति, उपाध्यायजीकृत जैनतर्कभाषा को, उसकी टिप्पणी के साथ देखने से हो जायगी ३ देखो, ज्ञानबिन्दु की टिप्पणी पृ० ६१,६८-७३ इत्यादि । ४ देखो, तत्त्वार्थ भाष्य, १.१२ । ५ देखो, सर्वार्थसिद्धि, १.१० ॥ राजवार्तिक, १.२०.१५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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