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ज्ञानबिंदु-ग्रन्थसम्पादन में उपयुक्तपतियों का परिचय
- (भूतपूर्वसम्पादक त्रिपुटी की ओर से ) (१) 'मु'-मुद्रित नकल, जो जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर से प्रकाशित हुई है उसे 'मु' संज्ञा से निर्दिष्ट किया है। सामान्य रूप से वह मुद्रित नकल शुद्ध है। फिर भी उस में कुछ खास त्रुटियाँ हमें ऊँची। कहीं कहीं ऐसा भी उस में है कि शुद्ध पाठ कोष्टक में रखा गया है। उस में मुख्य और गौण विषय के कोई भी शीर्षक तो हैं ही नहीं। विषय विभाग भी मुद्रण में नहीं किया गया है। फिर भी उस मुद्रित नकल से हमें बहुत कुछ मदद मिली है। यह प्रति अधिकांश अ, ब संज्ञक दोनों प्रतियों के समान है।
(२-३) 'अ, ब' अ और ब संज्ञक दोनों प्रतियाँ स्व. मुनि महाराज श्री हंसविजयजी के बडोदा स्थित ज्ञान-संग्रह में की क्रमशः ३५ और ६३५ नम्बर की है। प्रायः दोनों प्रतियाँ समान हैं । पाठों में फर्क आया है वह लेखकों की अनभिज्ञता का परिणाम जान पडता है । सम्भव है इन दोनों प्रतियों का आधारभूत आदर्श असल में एक ही हो ।
'अ' संज्ञक प्रति के पत्र ५१ हैं । प्रत्येक पत्र में पंक्तियाँ १० और अक्षरसंख्या लगभग ४१ है । इस की लंबाई १२३ ईच और चौडाई ५ ईच है। पत्र के दोनों पाव में करीब एक एक ईच का हाँशिया है। प्रति के आदि में 'श्री सर्वज्ञाय नमः' ऐसा लिखा हुआ है।
बि संज्ञक प्रति के ३३ पत्र हैं। प्रत्येक पत्र में पंक्तियाँ १३ हैं और प्रत्येक पंक्ति में लगभग अक्षर ४० हैं । इस की लंबाई १०३ ई च चौडाई ४३ ईच है। पत्र के दोनों पाश्च में करीब एक एक ईच का हाँशिया है। प्रति के अन्त में एक संस्कृत पद्य लिखा हुआ है जिस से ज्ञात होता है कि महामुनि श्री विजयानन्दसूरि के शिष्य लक्ष्मीविजय के शिष्य श्री हंसविजयजी के उपदेश से यह प्रति लिखी गई है। तदनन्तर प्रति का लेखन काल भी अंत में दिया है, जो इस प्रकार है___'संवति १९५५ वर्षे शाके १८२० प्रवर्त्तमाने मार्गशीर्ष शुक्लदले ६ तिथौ अर्कवारे' इत्यादि......।
(४) 'त' त संज्ञक प्रति पाटण के तपागच्छ भाण्डार की है। वह उक्त दोनों प्रतियों से प्राचीन भी है, और अधिक शुद्ध भी। इस में कुछ ऐसी भी पंक्तियाँ हैं जो अ, ब संज्ञक प्रतियों में बिलकुल नहीं है । फिर भी ये पंक्तियाँ संदर्भ की दृष्टि से संगत है।
___'त' प्रति के पत्र ३२ हैं। प्रत्येक पत्र में पंक्तियां १३ और प्रत्येक पंक्ति में अक्षर करीब ५८ हैं। इस की लंबाई १० ईच और चौडाई ४१ ई च हैं। प्रत्येक पत्र के दोनों पार्श्व में एक एक ईच का हाँशिया है। इस प्रति के अन्त में प्रशस्ति के ९ श्लोक पूर्ण होने के बाद इस प्रकार का उल्लेख है
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