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'हस्तानों में से पाठों की पसंदगी का प्रश्न
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अन्त में एक शब्द की अद्भूत यात्रा की कहानी सुनकर प्राकृत के विद्वानों को मूल अर्धमागधी भाषा में आगत ध्वनि-विकार का यथेष्ट अनुभव हो जायेगा और इससे यह प्रेरणा भी मिलेगी कि आगमों का पुनः सम्पादन क्यों करना चाहिए ।
'क्षेत्रज्ञ' शब्द के विविध प्राकृत रूप जो मुद्रित संस्करणों और हस्तप्रतों में मिलते हैं वे इस प्रकार है -
१. आचारांग के मुद्रित संस्करणों में उपलब्ध रूप - खेयन्न, खेयण्ण, खेतण्ण, खेत्तण्ण __२. हस्तप्रतों में उपलब्ध पाठ (उपरोक्त पाठों के अतिरिक्त) --- खेत्तन्न, खित्तण्ण, खेदन, खेदण्ण, खेअन्न,
इस प्रकार कुल नौ रूप मिलते हैं । इनमें से कौनसा रूप पूर्वभारत की प्राचीन अर्धमागधी का मौलिक रूप होना चाहिए ? ___ इस शब्द में आगत ध्वनिगत परिवर्तन इस प्रकार है - ज्ञ = न, एण, त्र = त, त, द, य, अ और ए = इ
शब्द में आगत ध्वनि-परिवर्तन की यात्रा इस प्रकार होगी - क्षेत्रज्ञ = खेत्तञ (पालि, मागधी, पैशाची और अशोक के अभिलेखों में उपलब्ध पश्चिम, उत्तर-पश्चिम और दक्षिण का रूप); खेत्तन (अशोक के लेखों के अनुसार पूर्वी भारत की लाक्षणिकता और पाटलिपुत्र की जैन आगमों की प्रथम वाचना का रूप); खेतन्न (दीर्घमात्रा के बाद आनेवाले संयुक्तव्यंजन में से एक का लोप); खेदन (मगधश से मथुरा (शूरसेन प्रदेश) की ओर प्रयाण); खेयण्ण (मथुरा से बलभी (पश्चिम भारत) की ओर प्रयाण), यहाँ पर आकर मध्यवर्ती व्यंजनका लोप; 'य' श्रुति और 'न' का 'ण' में परिवर्तन (गुजरात में) हो गया।
आश्चर्य यह है कि सबसे प्राचीन आगम ग्रंथ आचारांग में परवर्ती पाठ मिलते हैं जबकि सूत्रकृतांग के परवर्ती यानी द्वितीय श्रुत-स्कंध में प्राचीनतम रूप 'खेत्तन्न' सूत्र नं. ६४१ और ६८० में प्राप्त हो रहा है, वह भी कागज की प्रत में भी।
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