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श्रीः । शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् । विद्यन्ते कति नात्मबोधविमुखाः सन्देहिनो देहिनः १ प्राप्यन्ते कतिचित् कदाचन पुनर्जिज्ञासामानाः कचित् । आत्मज्ञाः परमममोदसुखिनः मोन्मीलन्तर्दृशो द्वित्राः स्युर्बहवो यदि त्रिचतुरास्ते पश्चषा दुर्लभाः ॥ १ ॥
अर्थ - आ दुनियामां आत्मबोध मेळववामां विमुख केटला नथी ? अर्थात् घणा जीवो छे, तेमां पण तत्त्वविगेरेना सन्देह करनार थोडा होय छे, वळी तत्त्व शुं वस्तु छे ते जाणवानी इच्छावाळा तो बहुज अल्प होय छे, अने आत्माने ओलखनार अंतरचक्षु खुलेलां, परमप्रमोदधी सुखमां लीन थएला कोई बेचार ज होय छे, वधुमां वधु पांच, छो, मळवा तो दुर्लभ ज होय छे. ॥ १ ॥
एमांथी तत्त्व मेळववानी इच्छा राखनारा वर्गने माटे आ अमारो प्रयत्न छे. तेओ वांचीने लाभ उठावशे तो अमारो प्रयत्न सफल थयो मानीशुं.
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