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( ८९ ) कोऽयं नाथ ! जिनो भवेत्तव वशी हू हूं प्रतापी प्रिये ! हूँ हूँ तर्हि विमुञ्च कातरमते ! शौर्यावलेपक्रियाम् ॥ मोहोऽनेन विनिर्जितः प्रभुरसौ तत्किङ्कराः के वय - मित्येवं रतिकामजल्पविषयः पार्श्वः प्रमुः पातु नः ||
सज्जनों ! जिनके ब्रह्मचर्यकी स्तुति काम और रति करते हैं वे कैसे हैं ? जिसकी हुशयारीको चोर सराहै वेही तो हुशयार हैं । पूरा विश्वास है कि अब आप जान गये होंगे कि वैदिक सिद्धान्तियोंके साथ जैनोंके विरोधका मूल केवल अज्ञोकी अज्ञता है और वह ऐसी अज्ञता है कि अनेक बार पूर्वमें उस अज्ञता के कारण अदालत हो चुकी है । सज्जनों ! अज्ञता ऐसी चीज है उसके कारण अनेक बेर अनेक लोग बिना जाने बूझे दूसरेकी निन्दा कर
१ ध्यानारूढ भगवान् पार्श्वनाथने देखीने रति पोताना पति कामदेवने पुछे छे हे नाथ ! आ 'कोण छे ? उ० जिनदेव छे । प्र. शुं तमारा वंशमां छे ? । उ ना ना, ए तो घणा प्रतापी छे । अरे कातरमति ! जगतने वश करवा रूप आ तारा शौर्यपणाना गर्वने छोड. हे प्रिये ! एतो मोहने जितवावाला जगतना प्रभु छे. अमे तो एना किंकरो. एमना आगल अमारो शो हिशाब ?, जेमना विषयमां रति अने कामदेव आवा प्रकारनो वार्तालाप करी रह्या छे तेवा पार्श्वनाथ प्रभु अमारुं रक्षण करो ॥ सं० ॥
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