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स्वर्णपुष्पमयीं पृथ्वीं चिन्वन्ति पुरुषास्त्रयः ।
शूराश्च कृतविद्याश्च ये च जानन्ति सेवितुम् ॥ __ तब तो देखनेका स्थान है कि क्षत्रिय की जीविका तो हथेलीमें जान रख कर है और ब्राह्मणकी तो उससे भी कठिन है । जब वह बारह और बारह चौबीस वर्ष विद्यार्जन करेगा तब वह जीविका करेगा परन्तु शूद्रका जीवन कैसा सुलम है। जहाँ पर देखो वहाँ पर सर्वत्र शूद्रों पर अनुग्रह है
ने शूद्रे पातकं किञ्चिन्नच संस्कारमर्हति । द्विजोंके लिये मनुने नियम किया है कि वे फलां फलां देशमें निवास करें। परन्तु शूद्रोंके लिये वे कहते हैं
एतान् द्विजातयो देशान् संश्रयेरन् प्रयत्नतः । शुद्रस्तु यत्र कुत्रापि निवसेद वृत्तिकर्षितः ।।
१ आ पृथ्वी सोनाना फूलमयी छे. ते फूलोने शुरमा पुरुषो, विद्यावाला, अने राजादिकनी सेवा करवानुं जाणे छे .एवा त्रण पुरुषोन
चुंटी रह्या छे ॥ सं. ..... - २ शद्रोमां कांई पातक नथी तम संस्कारनी जरूर पण नथी ।। ... ३ ब्राह्मणो आ बतावेला देशोमांज रहे पण शुद्र तो पोतानी भा...
जीविका माटे गमे त्यां रही शके || सं०
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