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॥ *मालाबंधश्लोको यथा ॥ योगाभोगानुगामी द्विजभजनजनिः शारदारक्तिरक्तो दिगजेताजेतृजेता मतिनुतिगतिभिः पूजितो निष्णुजिकैः । जीयाद्दायादयात्री खलबलदलनो लोललीलस्वलजः केदारौदास्यदारी विमलमधुमदो-दामधामप्रमत्तः ॥ १३४
इस श्लोकके ६१ अर्थ है वेसब अथ जैनप्रशंसा वो श्रीआत्मारामजीकी विभूतिकी प्रशंसा निकले है प्रत्येक पुष्पोंके बीचका जो अक्षर है वो तीनवार एक अक्षरको कहना चाहिये ऐसा काव्य दशवीश श्लोक बनाय के जरुर चाहता था कि जैनतत्वादश वो अज्ञानतिमिरभास्करमें जैनदेवप्रशंसा होनी चाहेती थी। एकवार आपको मिलने बाद अपना सिद्धांतका निश्चय फिर करना बने तो देखी जायगी ॥ . यह लेख उनका एक कागजके टुकडेमें अलग था यह सर्व • लेख पूर्वोक्त महात्मा का है।
* आ काव्यनुं चित्र साधनना अभाव अमोए दाखल करेलु नथी माटे जेने जोवानी इच्छा होय तेमणे तत्त्वनिर्णयप्रासाद ग्रन्थ पृ. ५२८ मां जोई लेबु.
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