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कल्प०
॥१००॥
लामां दे सखी! मारी जमणी यांख या वखते केम फरके बे ? एम बोलती राजीमतीने सखीएकयुं के 'तारुं विघ्न नाश पाम्युं बे, एम कहीने थुथुकार करवा लागी.
नेमिनाथ प्रजुए सारथिने कह्युं के हे सारथि ! तुं रथ अहींथीज पाढो वाल. श्रा वखते नेमिनाथ प्रजुने जोइने एक हरिण पोतानी गरदनथी हरिणीनी गरदनने ढांकीने उज्जो रह्यो. अहीं कवि घटना करे बे के प्रभुने जोइने दक्षिण कदेवा लाग्यो के या मारा हृदयने हरण करनारी हरिणीने मारता नहीं, मारता नहीं. हे स्वामिन् ! मारा मरण करतां पण मारी ते प्रियतमानो | | विरह दुःसह बे. हरिणी नेमिनाथनुं मुख जोइने हरिणने कहेवा लागी के था तो प्रसन्न वदनवाला त्रण भुवनना स्वामी बे, अकारण बंधु बे, तेटला माटे हे वल्लन ! सर्व जीवोनुं रक्षण करवाने विज्ञप्ति करो. त्यारे पत्नीए प्रेरेलो हरिण पण नेमिनाथने कहेवा लाग्यो के निकरणानुं पाणी पीनार, श्ररण्यना तृणनुं जण करनार ने वनने विषे वास करनार एवा श्रमारा निरपराधीना जी वितनुं हे प्रभु ! रक्षण करो! रक्षण करो ! एवी रीते सर्व पशुए पण स्वामी प्रत्ये विज्ञप्ति करी, त्यारे प्रजुए कयुं के हे पशुरक्षको ! या पशुर्जने बोकी आपो, बोमी श्रापो. हुं विवाद करीश नहीं. त्यारे ते पशुरक्षकोए पण श्री नेमिनाथ प्रजुना वचनथी पशुर्जने बोमी दीघां ने सार थिए पण रथ पाठो फेरव्यो.
वहीं कवि कहे बे के जे कुरंग ( हरिण ) चंद्रमाना कलंकने विषे, राम ने सीताना विरहने विषे तथा नेमिनाथ प्रभुश्री राजी मतीना त्यागने विषे हेतुभूत बे, ते कुरंग कदेतां खोटो रंग | करनार ए सत्यज बे.
वे वखते समुद्रविजय तथा शिवादेवी प्रमुख स्वजनोए तुरत रथने जतो अटकाव्यो, तथा शिवादेवी माता यांखोमां श्रांसु लावी कदेवा लाग्या के हे जननीवल्लन वत्स ! हुं प्रथम प्रार्थनानी विनंति करुं हुं के तुं कोइ रीते विवाद करीने मने वहुनुं मुख देखाम. त्यारे ने मिकुमारे कयुं | के हे माता ! तमे ए आग्रह मूकी दो, मारुं मन हवे मनुष्य संबंधी स्त्रीउने विषे नथी, पण मुक्तिरूपी
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सुबो
॥१००॥
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