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कल्प०
॥ ए० ॥
सरखं शोजा रहित थयुं छे. हवे हुं कोना चरणोने नमीने वारंवार पदोना अर्यो पूढीश ? तथा हे जगवंत ! एम दवे हुं कोने कहीश ? तथा मने पण हे गौतम! एम प्राप्त वाणोथी कही कोष बोलावशे ? हा ! हा ! हा ! वीर ! घ्या तमे शुं कर्यु ? के आवा छात्रसरे तमे मने दूर कर्पो !!! शुं यामो मांगीने बालकनी पेठे हुं तमारे बेडे वलगत ? शुं हुं केवलज्ञानमांथी तमारी पासेयी जाग मागत ? श्रथवा मोक्षमां शुं संकमाश था जात ? अथवा शुं आपने कांइ जार पी जात ? के मने श्रम तजीने तमे चाया गया ! ! ! ए प्रमाणे वीर ! वीर ! एम करतां वीर नाम गौतमना मुखे लागी रयुं. हा, हवे में जाएयुं के वीतरागो तो निःस्नेही होय बे; था तो मारोज अपराध बे, | केमके में ते वखते श्रुतनो उपयोग दीधो नहीं; था एक पना स्नेहने धिकार बे ! माटे हवे स्नेहथी सर्यु; हुं तो एकलोज तुंः मारो कोइ नथी; एवी रीते सम्यक् प्रकारे सम परिणाम जावतां थका | तेमने केवलज्ञान उत्पन्न थयुं.
मुरकमग्गपवाणं, सिणेहो वजसिंखला ॥ वीरे जीवंतए जाउँ, गोश्रमो जं न केवली ॥ १ ॥ मोक्षमार्गमां प्रवर्तेलाने स्नेह एवज्रनी सांकल बे, कारण के वीर प्रभु जीवता हता त्यांसुधी गौतम | केवली न थया.
पठी प्रभातकाले इंद्र श्रादिके महोत्सव कर्यो. हीं कवि कहे बे के सघलुं श्राश्चर्यकारीज ययुं छे. तेमनो अहंकार तो उलटो बोधने माटे जति माटे थयो तथा विषाद केवलज्ञानने माटे थयो ! ! !
हवे ते श्री गौतमस्वामी बार वर्ष सुधी केवलिपर्याय पालीने अने सुधर्मास्वामी ने दीर्घायुष्यवाला जाणी गण सोंपीने मोके गया. पाबलथी सुधर्मास्वामीने पण केवलज्ञान थयुं, अने ते पण त्यार वाद आठ वर्ष सुधी विहार करी पछी श्रार्य जंबूस्वामीने पोतानो गए सोंपीने मोके गया. हवे जे रात्रिए भ्रमण जगवंत श्री महावीर स्वामी मोदे गया यावत् सर्व दुःखथी मुक्त थया,
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श्री गौतम प्रजुने तो थयो, राग पण गुरुनी
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सुबो०
॥ एक ॥
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