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________________ अंतरिक्षपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥ उपजातिवृत्तम। श्रीपार्श्वनाथं भवि सुप्रसिद्ध, वैदर्भदेशे सुविशालकीत्तिम् अस्पृष्टभूमि सुयथार्थनाम, श्रीअंतरिक्षं शिरसा नमामि ॥१॥ विभूषितं श्रीपूरमध्यभाग, पातालगर्भगृहसंस्थितं यः। अनेकभक्त्तापितभक्त्तिपुष्पं, श्रीअंतरिक्षं शिरसा नमामि ॥ २ ॥ लंकापते विभूषित यत्, बिम्बं जिनेन्द्रस्य सुभूतकाले ।। चमत्कृतिर्यस्य जने प्रसिद्धं, श्री अंतरिक्ष शिरसा नमामि ॥ ३ ॥ वाराणसी यस्य सुजन्मभूमि-र्वामाकुले सूर्य इव प्रदीपः । पूज्यं मनोवांच्छितपूरकं त, श्री अंतरिक्षं शिरसा नमामि ॥ ४ ॥ फणीन्द्रविस्फारितमातपत्रं, सूशोभितं सुंदरश्यामवर्णम् । आकृष्टभक्तालिमुखारविन्द, श्रीअंतरिक्ष शिरसा नमामि ॥ ५ ॥ सत्योपदेष्टा कमठस्य पाश्वो मन्त्रामृतेनोद्धरितः फणीन्द्रः । सुरेन्द्रसंपूजितदेवदेवं श्रीअंतरिक्षं शिरसा नमामि ।। ६ ॥ धर्मोपदेष्टा भुवि भाविकानां तीर्थंकर: संघविधायको यः । धर्मस्य संस्थापकधर्ममति, श्रीअंतरिक्षं शिरसा नमामि ॥७॥ भक्तस्य वाज्छा भघि भाग्यलक्ष्मी-विधायको यः परमार्थसिद्धेः। मोक्षस्य दाता परमं पवित्रं श्रीअंतरिक्षं शिरसा नमामि ॥ ८ ॥ -बालेन्दु श्री अंतरिक्षपार्श्वनाथ जिनेश्वर स्तवन ( राग-जब तुम ही चले परदेश ) श्री अंतरिक्षप्रभु पास, पूरो हम आश स्वामी सुखकारा, सेवकका करो उद्धारा विदर्भदेश के शिरपुरमें, तुम जाकर बैठे दूरदूरमें। तुम दर्शन को आया हूँ जिनजी प्यारा...सेवक. १ तुम सेवामें मैं आया हूँ, महापुण्यसे दर्शन पाया हूँ। ___ आनंद हुआ है दिलमें आज अपारा....सेवक० २ तुम मति अध्दर रहती है, अति चमत्कार चित्त देती है। तुम महिमा जगमें सोहे अपरंपारा...सेवक० ३ Jain Educatie International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005202
Book TitleJain Shwetambar Tirth Antriksha Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAntriksha Parshwanath Sansthan Shirpur
PublisherAntriksha Parshwanath Sansthan
Publication Year1972
Total Pages154
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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