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________________ ० आठ कर्मक्षय सिद्ध भगवान - अनंत चतुष्टय के स्वामी/शद्ध अवस्था तीनों योग से मुक्त स्थिति: पांच हूस्वाक्षर चौदह गुणस्थानक iamine सादि अनंत + स्थिति चित्रसमज: मिथ्यात्वादि अवस्था जैसे पर्वत की घाटी में है...' ० सम्यक्त्वप्राप्ति से जीवका क्रमश: उत्थान हो रहा है...' ० आठवें गुणस्थाक से मुक्ति की और यात्रा पूर्ण वेग से शुरु होती है। और जैसे मुक्तिनगर में ही प्रवेश होता है। ० प्रत्येक गुणस्थानक के पास उसका परिचायक चित्र रखा गया है । ० नाम के वर्तुल का वर्ण जीव की मलिनता से शुद्धि की यात्रा का सूचक रखा है। अयोगी केवली वीतराग सर्वज्ञ भगवान अ.इ,उ,ऋ,ल-उच्चारण जितना समय मन-वचन-काया के योगयुक्त वीतराग-सर्वज्ञसर्वदर्शी घातीकर्म रहित अन्तर्मुहूर्त से देशोन पूर्व क्रोड वर्ष सयोगी कवली प्रातिभ जान छद्म वीतराग अन्तर्मु. क्षीणमोह 0 चरम समये क्षपकक्षेणिमें . संपूर्ण मोहक्षय... सूक्ष्म लोभ किट्टीवेदन पांच अपूर्व क्रिया मोह क्षपक या उपशमकारक १. मोहकर्म का अपूर्व स्थितिघात । क्षपक या उपशामक को २. अपूर्व रसघात सम अध्यवसाय जल समय३. अपूर्व गुणश्रेणी अनिवत्ति उ. अन्तमु०४. अपूर्व गुणसंक्रम करण या १. अपूर्व स्थितिबंध बादर संपराय स्थितिः अन्तर्मु. निवृति ०४ समये आरोहक जीवों के भिन्न-भिन्न अध्यवसाय १२ अपूर्व-करण निवृत्तिकरण या मोह अप्रमत्त सर्वविरति सूक्ष्म संपराय (उपशम श्रेणी में मोहका १० अनुदय छास्थ-वीतराग, अन्तर्मुहूर्त के बाद उपशांत अवश्य पतन ज० समय उ० अन्तर्मु० ० सुदेव-गुरु-धर्म के उपर श्रद्धा, जिनवाणी, श्रवणप्रेमी, देव-गुरु वैयावच्ची। नवतत्त्वरुचि, संयमरुचि, धर्मानुष्ठानकुशल, समकित सहित १२ व्रत के जिन धर्म प्रति शम, संवेग, निर्वेद, आस्तिक्य-अनुकंपाशील-भवभीरु अब्ज क्रोड लाख हजार दोसोदो नालीकेर मनुष्यवत् स्थिति: अंतर्मुहूर्त से साधिक १३८४२२२७२०२ + समय: अन्तर्मु ६६ सागरोपम भंगो में से एक..दो..वगैरह देशविरति भंगो का प्रतिज्ञापूर्वक पालक. सम्यग्दृष्टि संयम की रुचिवाला ३ तीसरा मिश्र गुण स्थितिः उतिर्मुहूर्त से देशीन पूर्वक्रांड पार्ष खात्म रमणशील उपयोगवान, तत्त्व परिणतीवान सर्व-विरतिजन्यमय सन्नहित जीवनभर सर्व सावद्यत्याग, महाव्रतपालक मोक्ष-उद्यमी, अल्प-प्रमाद ज समय अविरत उ०अन्तमहत मिथ्यात्व गुणस्थानक की विविध-कक्षाएं गुण सास्वादन गी दे, चरमावर्त में भव्य जीव का प्रवेश स्थान 'दिःसकृत्बंधक... क्रमश: उपशम सम्यक्त्व का मार्गानुसारी जीवन, सदाचा अचरमावर्त में अपुर्नबंधक, मार्गाभिमुख, ता वमन सदृश स्वाद सद्विचार-रसिक, सत्समागर ७० को.को उत्कृष्ट व्यवहार राशि में अतिगाढ मिथ्यात्व मार्गपतित. ग स १ समय से सत्शास्त्रश्रवणरुचि, त्याग मिथ्यात्व-मोहनीय अव्यवहार-राशि तीव्रभावसे पाप नहि 02 'म बादर-निगोद वगेरे सुक्ष्म-निगोद आवलिका वैराग्य-दान-शीलादि बंधक, भवाभिनंदी Jain Educajon International स्थिति में मिथ्यात्वचा 4 उचित माना, संसक पतिe Only अज्ञानी, कदाग्रही... । गुणवान... कस अनंतखा ण' बहमान नहि. मोक्ष प्रति अढेष का घोर अंधकार भाग प्रगट है।
SR No.004987
Book TitleJain Tattvagyan Chitravali Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages64
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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