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श्रुत-शारदा-सरस्वती देवी के प्रतीक
श्रुत-शारदा-भारती-ब्राम्ही-सरस्वती-विद्यावागीश्वरी-त्रिपुरा आदि १०८ भिन्न भिन्न पर्याय वाची नाम मिलते है वैसे १०८ नामो का भिन्न भिन्न स्तोत्र भी ग्रन्थमें छपा हुआ है। वह चार भुजावाली यादो हस्तवाली प्राचीन शिल्पमें दिखाई जाती है। लेकिन तारंगा हिल पर जैन मंदिर के पृष्ठ भागमें अष्टभुजावाली जैन सरस्वती मूर्ति हंसयुक्त देखने में आती है, जो संशोधन का विषय है। बहुत सारे शिल्पो और चित्रोमें दायें हस्तमें माला वरद मुद्रा या वीणा धारण की हुई और बायें हस्तमें पुस्तक-कमल या अमृतपूर्ण कमण्डलु ग्रहण की हुई, राजहंसको वाहन बनाकर या शतदल कमलके बीचमें विराजित हुई और कई जगह पत्थर की शिलापर बैठी हुई दिखाई जाती है। यद्यपि उसमें भी भिन्न भिन्न संकेतार्थ हो सकते है फिर भी जैनोंकी सरस्वती बालहंस और जैनेतरोकी मयूरके प्रतीकवाली मानी जाती है।
सरस्वतीजीका निवास जैन धर्म मान्य सेन प्रश्नोत्तर नामक प्रश्नोत्तर ग्रन्थमें व्यंतर निकाय की गीतरति इन्द्रकी महर्द्धिक पटरानी सरस्वती देवी है ऐसा उल्लेख मिलता है। जैनेतरोकी मान्यतासे ब्रह्माकी दो पुत्रियो में से एक पुत्री सरस्वती है और किसी जगह पर वो ब्रह्माकी पत्नीभी मानी गई है वे जब परिणीता बनी तब मयूरके प्रतीकवाली थी और जब अपरिणीता थी तब हंसके प्रतीकवाली थी लेकिन निश्चितार्थ करनेमें भिन्न भिन्न मत-मतांतर चलते हैं इसलिये यह संशोधन का विषय है।
सरस्वतीजीके प्रतीकों की रहस्यमयता
सरस्वतीजीके हस्तमें जो पोथी (पुस्तक) है वो ज्ञानकी अमोघ शक्तिकी सूचक है, माला मंत्रदीक्षाकी सूचक है और उसमें ज्ञान साधनाके योग्य क्रिया-उपासना ध्वनित होता है। एवं वीणावादन संगीतद्वारा आत्माकीस्वरूप अवस्थामें लयलीन बनाने का प्रतीक है तथा वरदमुद्रा और अमृतसे भरा हुआ कमण्डलू भक्तजनोके त्रिविध पाप-ताप-संतापको दूर करके आत्मानुभूतिका रसास्वाद करानेवाले है। और राजहंसजगत् के सत्-असत् तत्त्वोको क्षीर-नीर की तरह विवेकज्ञानद्वारा भिन्न (भेद) द्रष्टिसे सोऽहं सोऽहं का अजपा जप का सूचन बताकर आत्म स्वरूपको प्रत्यक्ष करानेका प्रतीक है। मयूर वाहिनी मात्र ज्ञान-विज्ञानकी ही अधिष्ठात्री नही किन्तु सारे साहित्य संगीत कला की भी महान अधिष्ठात्री है।
सरस्वतीजी शतदल कमलके बीचमें विराजित दिखाई जाती है वो ब्रह्मज्ञान की प्राप्तिका निरूपक है और देह स्थित चरमब्रह्मद्वारकी उद्घाटक भी वही है ऐसा ज्ञात होता है। तन्त्र ग्रन्थोमें सरस्वतीजीको सुषुम्ना नाडी की स्वामिनी बताई है उसकी कृपा से ही और मध्यमा नाडीके अभ्यास में ही जीव शिवपद तक पहुंचता है
ऐसा कहा जाता है। इसी तरह भिन्न भिन्न प्रतीकोंद्वारा वैश्विक सनातन तत्वोको सत्यम्-शिवम् -सुन्दरम् में प्रस्थापित करके ज्ञानानुभव और सौन्दर्यानुभव जो आत्माके विशिष्ट गुण हैं उसका रूपक देवी की मूर्तिमें घटाया है। माँ के स्वरूप का भिन्न भिन्न स्वीकार कैसे?
माँ भगवती सरस्वतीजीका प्रभुत्व त्रिकालाबाधित है। वे सर्व संसारी जीवोकी उर्ध्वगामिनी प्रेरणादायक ज्ञान-शक्ति स्वरूपा हैं। प्रत्येक धर्म-सम्प्रदायोमें मां सरस्वतीका विशिष्ट स्वरूपमें सादर स्वीकार हुआ ही है । ब्राह्मणोंमें सरस्वती नामसें वैश्योमें शारदा बौद्धोमें प्रज्ञा पारमिता, ईसाइयोंमें मीनर्वा और जैनोमें श्रुतदेवताके नामसे मां सरस्वती की पूजा की जाती है। दक्षिण भारत बंगाल मेघालय आदिमे "त्रिपुरा भारती" नामसे बहत सारे प्रभाव और प्रसार कर्ण गोचर हुए हैं। “एन्द्रस्येव शरासनस्य दधती" चरणसे शुरु होता त्रिपुरा भारती स्तोत्र लघु पण्डितका अत्यंत प्रभावशाली गूढार्थ माना गया है। जिसपर जैनाचार्य श्री सोमतिलक सूरिजी म. श्री ने स्तोत्रका रहस्य स्फोट करके मननीय टीका बनाई है। साथ साथ इक्कीस श्लोकों में इक्कीस (२१) भिन्न भिन्न कार्यसाधक मन्त्र श्लोकान्तमें रखे है जो ग्रन्थमें प्रस्तुत किये हैं।
इस स्तोत्रका कर्ता 'लघु' नामक चारणजन ने राजस्थान के अजारी गाँव के पहाडोके बीचमें जिधर माँ शारदाका प्राचीन मन्दिर था उधर माँ की लगातार साधना द्वारा माँका वरदान प्राप्त किया था। यह स्थान लघु काश्मीर माना जाता है। माँ शारदा आषाढी चातुर्मास अजारीमें निवास करती है और आठमास काश्मीरमें बसती है ऐसा कुछ साधक जन कहते है लेकिन यह स्थान बहुत प्रभावसम्पन्न कार्यसाधक है इसमें दो मत नहीं है।
विद्यादेवीकी साधना क्यों करना ?
जगतके किसी भी व्यवहारमें-विषयमें-विकासमें अरे ! किसी भी सिद्धि के लिये भी माँकी करुणा-कृपा-प्रसाद प्राप्त करना अनिवार्य रूपसे आवश्यक बन जाता है। उसकी आराधना-साधना बहुत प्राचीन कालसे चली आती है।
विक्रमकी आठवीं सदी में विख्यात हो आमराजा प्रतिबोधक श्री बप्पभट्टि सूरि म.सा. की बाल दीक्षा जीवनकी अद्भुत घटना ख्यात है कि गुरुदेव श्री सिद्धसेन सूरिजी ने उसकी ठीक तरहसे योग्यता देखकर श्री सारस्वत महामन्त्र प्रदान किया था। वे निरंतर जाप करते थे लेकिन एक दिन नित्य जाप में एकाग्र बने हुए थे। तब बाल मुनिके नैष्ठिक ब्रह्मचर्यके तेज की आभासे एवं ध्यानकी लयलीनता से और जापके प्रकर्षसे स्नानक्रीडा में रत बनी हुई श्री सरस्वती देवी शीघ्रतासे वैसे ही रूपमें प्रगट हई लेकिन मुनिवरने माँ का विषम स्वरुप देखकर मुख फिरा लिया तब देवी को आश्चर्य अपने स्वरूपका ख्याल आया तब स्वस्थ बनकर अपने स्थानमें वापस लौटी और पूर्ण प्रसन्नतासे मुनिश्रीको वर दिया कि
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