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________________ अनुवाद ॥ श्री शारदा भुजंगप्रयात स्तोत्रम् ॥ सुवक्षोजकुंभां सुधापूर्णकुम्भा प्रसादावलम्बां प्रपुण्यावलम्बां। सदास्येन्दुबिम्बां सदानोष्ठबिम्बां भजे शारदाम्बामजसं मदम्बाम्।।१।। कटाक्षे दयार्दी करे ज्ञानमुद्रां कलाभि विनिद्रां कलापैः सुभद्राम् । पुरस्त्रीं विनिद्रां पुरस्तुंगभद्रां भजे शारदाम्बामजसं मदम्बाम् ।।२।। ललामाङ्कफाला लसद्गानलोलां स्वभक्तैकपालां यशः श्रीकपोलाम्। करे त्वक्षमालां कनत्प्रत्नलोलां भजेशारदाम्बामजस्रं मदम्बाम् ।।३।। सुसीमन्त वेणी दृशा निर्जितैणी रमत्कीरवाणी नमद्रुज्रपाणिम्। सुधामन्थरास्यां मुदा चिन्त्यवेणी भजे शारदाम्बामजसं मदम्बाम्।। ।। सुशान्तां सुदेहां दूगन्ते कचान्तां, लसत्सल्लताङ्गी मनन्तामचिन्त्याम्। स्मरेत् तापसै:संगपूर्व स्थितां तां, भजे शरादाम्बामजसं मदम्बाम्॥५।। कुरङ्गे तुरङ्गे मृगेन्द्रे खगेन्द्रे मराले मदेभे महोक्षेऽधिरूढाम् । महत्यां नवम्यां सदासामरूपां भजे शारदाम्बामजसं मदम्बाम् ॥६।। वेदो के (निरन्तर) अत्यधिक पाठ से जड (के समान) बने हुए ब्रह्मा भी जिसके करकमल के ग्रहण (पाणि-ग्रहण = विवाह) से परस्पर ग्रथित क्रियावाले, इस मनोहर विविध प्रकार के विश्व को सक्रियता के साथ रचते है उस तुंगा (तुंगभद्रा) नदी के किनारे वास करने में आसक्त (इच्छुक) हृदयवाली श्री चक्र (मंत्र) मे निवास करनेवाली, साधको मे श्रेष्ठ श्री शंकराचार्य के द्वारा स्तुति की गई ऐसी श्री शारदा माता को मैं भजता हूँ। हे माता ! साधारण नमन ध्यान और पूजन की पद्धति का जाननेवाला कोई मूर्ख भी, यदि तुम्हारी सेवा करे तो (तेरे) चरण कमल की सेवा मे लीन ऐसे उसके मुखमे से अलंकारयुक्त, सुन्दर शब्दमयी, रसयुक्त पदोंवाली कविता, देव-नदी (गंगा) की तरह थोड़े से भी प्रयत्न के बिना ही बहने लगती है यह आश्चर्य है। २ हे माता ! सेवा, पूजा और नमन की विधियाँतो दूर रही, तुम्हारे दो चरण कमल का कभी किया हुआ स्मरण भी गूंगे का वाणी से देवो का आचार्य (बृहस्पति) और दरिद्र को सम्पत्ति से इन्द्र बना देता है । जन-समूह उस (शारदा) को नही पहचान सकता । क्या (यह) सचमुच कलियुग का खेल है। ३ हे वाणी की देवी ! श्रृंग-पर्वत पर निवास करनेवाली ! (शारदे!) भक्तो को तुम्हारे चरण कमलो मे नमन करने की विधि मे तत्पर हुए देखकर ही रोग ऐसे दूर भाग जाते है जैस सिंह को देखकर हिरण । सूर्य उगने पर जैसे अंधकार कही लीन (लुप्त) हो जाता है वैसे काल (मृत्यु) कहीं छिप जाता है । और सुख आयुष्य कमल की तरह विकसित होता है। हे वाणी की देवी ! तुम्हारे चरण कमलो के पूजन से हृदय कमल की शुद्धि प्राप्त किया हुआ मनुष्य, स्वर्ग को रौरव नरक के समान, वैकुंठ को दुःखदायक, और इन्द्र पुर को कैदखाने के समान समझता है। अधिक वर्णन करने से क्या ? और वह जो कुछ दिखाई देता है उसे सचमुच रस्सी को साँप वगैरह की (भ्रांति की) तरह देखता है। हे माता ! जब हृदय नामक सरोवर मे तुम्हारा चरण कमल दृढमूल होता है तब जैसे तुम मुखकमल मे स्थिर हो वैसे घर मे लक्ष्मी स्थिर होती है; कीर्ति दिशाओ के अन्त तक पहुँचती हैं, राजाओ से आदर सम्मान मिलता है, और सचमुच सर्वशास्त्रो के वाद मे प्रतिस्पर्धियो (शत्रुओ) को दूर करता है। ज्वलत्कान्तिवहिं जगन्मोहनाङ्गी, भजे मानसाम्भोजसुभ्रान्तभृङ्गिम्। निजस्तोत्रसङ्गीतनृत्यप्रभाङ्गी, भजे शारदाम्बामजसं मदम्बाम्॥७॥ भवाम्भोजनेत्राब्जसंपूज्यमानां लसन्मन्दहारा प्रभावकाचिह्नाम् । चलच्चञ्चलाचारुताटङ्ककर्णा भजे शारदाम्बामजसं मदम्बाम् ।।८।। । सम्पूर्णम्। ४ ભાષાતર સુંદર કળશ જેવા સ્તનવાળી, અમૃતથી ભરેલા કું ભવાળી, આનંદના આધારરુપ, ઉત્તમ પુન્યશાળીઓના આલંબનરુપ, ચંદ્રમળ સમાન મુખવાળી (લાલ) બિંબ ફળ જેવા સુંદર નિર્મળા હોઠવાળી, મારી જનની શારદા માતાને હું નિરંતર ભવું છું. ૧ (કરૂણા) દષ્ટિ માં દયાથી ભીનાશવાળી, હાથમાં જ્ઞાન મુદ્રાવાળી, લલિત (સાહિત્ય-સંગીત-નૃત્ય) કલાઓથી સદાચજાગૃત, આભૂષણોથી સુંદર સ્વરૂપવાળી, વિદ્યાનીદેવી, જ્ઞાનરુપા, બુદ્ધિનો ઉચ્ચવિકાસકરનારી, મારી જનની શારદામાતાને હું નિરંતર ભણું છું. કપાળમાં સુંદર તિલક કરેલી, મનોહર ગાયનમાં મગ્ન, પોતાના ભકતોની એકમાત્ર રક્ષણ કરનારી, ચશરૂપી શોભાયુકત ગાલવાળી, હાથમાં અક્ષમાલા ધારણ કરનારી, પ્રકાશતી પ્રાચીન । सम्पूर्णम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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