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________________ वादीके मुखको बंद कर विजयी होता है। इस कवच पाठ से राजाका कोप शांत होता है। ३-४ कं-खं-गं-घं-टुं स्वरुपा, ईन्द्र द्वारा पूजिता दोनों स्कंधोंका रक्षण करो। चं-छं-जं-झं-जं ऐसी वक्षस्थलमें रही छाती का रक्षण करो। टं-ठं-डं-ढं-णं रुपा कुक्षी में बसनेवाली मेरी दोनों कुक्षियो का रक्षण करो। तं-थं-दं-धं-नं स्वरुपा देवों द्वारा पूजिता मेरे दोनो मध्यभाग का रक्षण करो। हे महेश्वरी जो भक्त स्मशानमें रात्रीको तीन बार पाठ करे और इतवार को (रविवार को) भोजपत्र पर स्याहीसे कवचको लिखे उसे सिद्ध प्राप्त होती है। अष्टगंधव लाखसे धूप-दीपादि अर्पण करने से सुवर्णगुटिका को उसमें रखकर यंत्रराज की तरह पूजा करे। यह गुटिका महास्वरुपवाली उत्तम सरस्वती दात्री और लोकमे सर्व अर्थको साधनेवाली और इच्छित फलोको देनेवाली है। ७ हे ईशानी ! दिशा की देवी की यह उत्तम गुटिका ऐसे-वैसे लोगों को नही देना, यह कवच नक्की मूलविद्यामय है। विद्यादायक, लक्ष्मी के स्थानभूत, पुत्र- पौत्रादिकमें वृद्धिकारक, आयुष्यदायक, पुष्टि कारक, यश प्राप्त कराने वाला इस प्रकारका त्रैलोक्य मोहन नामक कवच है। हे देवि ! यह मंत्र गर्भवाला कवच अपनी योनिकी तरह गोपनीय रखना ! । समाप्तम्। पं-फं-ब-भं-म-रुपा ब्रह्माके स्वामियो द्वारा पूजिता मेरी नाभीका रक्षण करो यं-रं-लं-वं ऐसी नितंब (देव) को प्रिय बोलनेवाली (प्रियंवदा) गुह्य भागका रक्षण करो। शं-घ-सं-हं रुपा श्री बगला देवी कमरका रक्षण करो। कंक्षं ऐसी सर्वविद्यादात्री शिवादेवी दोनो जाँघका रक्षण करो। ९ लक्ष्मी द्वारा पूजिता सरस्वती देवी दोनो जंघा का रक्षण करो। ओम्-ह्रीम्- ऐं-ह्रीम् रुपा चरण कमलमें बसनेवाली दोनो चरणोंका रक्षण करो। १० जो विभाग नामसे रहित और स्थानका विस्मरण किया हो वह सर्वका मूल विद्यामयी उत्तम वागेशी देवी रक्षण करो। ११ पूर्वमें वाग्देवी, अग्नि में वागेशी देवी, दक्षिण में सरस्वती देवी, नैऋत्य दिशामें अनलप्रिया देवी मेरा रक्षण करो। १२ पश्चिममें वागीशा, वायव्यमें वेणामुखी, उत्तर में विद्यादेवी तथा इशान दिशामें विद्याधरीदेवी मेरा रक्षण करो। १३ विष्णु जलतत्वसे और रूरूभैरव (पशमुखवाली एक देव जाति) पृथ्वी से मेरा रक्षण करो। यमराज वायुसे और क्रोधेश (देव) अग्नि से मेरा रक्षण करो। उन्मत्त देव खडे रहने से, भीषण देव अग्रभाग से, मार्ग कि मध्यमें कपाली देवी, और प्रवेश करने से संहारदेव मेरा रक्षण करो। चरणसे मस्तक तक मेरे देहका सर्वत्र रक्षण करो मस्तक से चरण तक मुझे सरस्वतीदेवी है। फलश्रुति : इस प्रकार का वाणी के मन्त्र-गर्भवाला कवच, जय-वाही (वहन करनेवाला) त्रैलोक्य मोहन नामक दारिद्रय-भय का नाशक ५४ श्री सरस्वत्यष्टकम् शतानीक उवाच ॥१॥ महामते ! महाप्राज्ञ ! सर्वशास्त्र-विशारद ! अक्षीण कर्मबन्धस्तु पुरुषो द्विजसत्तम ! मरणे यज्जपैजाप्यं पञ्चभावमनुस्मरन् । परमपदमवाप्नोति तन्मे ब्रूहि महामुने! ॥२॥ शौनक उवाच इदमेव महाराज ! पृष्ठवाँस्ते पितामहः । भीष्मं धर्मविदां श्रेष्ठ धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ||३|| युधिष्ठिर उवाच पितामह ! महाप्राज्ञ ! सर्वशास्त्रविशारद!। बृहस्पतिस्तुता देवी वागीशाय महात्मने!। आत्मानं दर्शयामास सूर्यकोटि-समप्रभम् सरस्वत्युवाच वरं वृणीष्व भगवन् ! यत्ते मनसि वर्तते। साक्षात् सर्वरोगहारी, सिद्धिदायक, पापनाशक, साधकोको विद्यादायक, उत्तम ऐसा मूल विद्यामय है। हमेशा परमार्थ दायक भोग और मोक्षका एक कारणभूत, हे देवि! जो यह कवच का पाठ करते है वो विवादमें या शत्रके संकटमें ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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