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________________ तु ही मातापिता है। तु ही सुहृद है। तु ही भ्राता और तु ही रखा है। तु ही विद्या है। तु फैलाती कीर्तिवाला चरित है। तु ही अति अद्भुत भाग्य है। ज्यादा क्या ? सबकुछ अभीष्ट भी तु ही है तो हे कृपा से कोमल विश्वेश्वरी मेरा पर सम्यक् प्रसन्न हो । तेरे सिवा हे माँ, मेरा कोई शरण नही । ३६. " श्री सिद्धनाथ" इस स्वरूप से महापुरुष करुणासागर ऐसे इस चौथे (कलि युग में उत्पन्न हुए। जो सकल आगम में चक्रवर्ती जैसे उन्होंने "श्री शंभु" इस नाम से मेरे विषय प्रसन्न चित्त किया । ३७. इस सद्गुरू की ही आज्ञा से परंपरा से सिद्ध विविध विधाओं स्थानभूत इस स्तुतिरूप वचन विलास से तुझे स्तुति (परिणता ) की है। उससे हे भुवनेश्वरी वेदगर्भे ! मेरे पर सदा प्रसन्न रहो मेरे मुख में सान्निध्य कर । ३८. हे अंबिका ! तु जिनकी सचमुच परम देवता नही है। उनकी वाणी से मेरी वाणी मिश्रित न हो, परिचित विषय में भी क्षण मात्र के लिए उनका वास न हो ऐसी मैं अविरत प्रार्थना करता हुँ । ३९. हे शंभुनाथ (महादेव) की करुणा के खजाने जैसे हे सिद्धो के नाथ ! और सिद्धो के नाथ की करुणा के आकार हे शंभुनाथ, सभी अपराधो से मलिन ऐसे मेरे उपर अपने मन को प्रसन्न करो। मेरा दुसरा कोई शरण नहीं है। ४०. इस तरह प्रतिक्षण हर्षाश्रु से झरते लोचनवाले पृथ्वीधर के सन्मुख स्पष्ट रीत से प्रगट हुए और वरदान देकर भगवती हृदय में प्रवेश हो गए और नौ नए शास्त्र द्वारा उनके मुखमें अवतीर्ण हुए । ४१. श्री शंभुनाथ ने (पृथ्वीधर) उसकी तुलना न हो सके ऐसी वासिद्धि (और) इस (लोक) में महान ऐसी उस प्रतिष्ठा को देखकर, तीनो भुवनों के आगम की वंदनीय विद्या का एकमात्र सुंदर सिंहासन रूप अपने (पृथ्वीधर को) स्थान पर दीर्घ काल के लिए स्थापित कीया । ४२. भूमि पर शयन ( संथारा), वाणी नियमन, स्त्रीओं से निवृत्ति, ब्रह्मचर्य, सुबह में पुष्पपेड की समिधा (डालीयॉ) ए (जमा करना) दाँत और जिह्वा (जीभ) की शुद्धि करनी पत्रावली में मधुर भोजन, (मधुकर भिक्षा) आँगन के वृक्षो के पुष्पों से पुजा और हवन, उत्तम ( उज्ज्वल ) ऐसे फलफलादि वस्त्र और विलेपन (रखना) । ४३. व्रतधारी ऐसा जो इन (नियम) के अनुसार तीन महिने तक प्रतिदिन सुबह-दोपहर और शाम को एक मन से कीर्तन करता है। उसके सकल भुवन में आश्चर्यचकित अनेक प्रकार से उल्लासित Jain Education International सभी विद्याएँ उसके मुख में जल्दी ही शंभुनाथ की कृपा से (बसती है) । ४४. व्रतरहित (और) मंत्र प्राप्त न किया हो लेकिन जो श्रद्धापूर्वक पवित्र होकर प्रतिदिन पठन (स्तोत्र का ) करता है ऐसे साधक को भी एक वर्ष में निर्दोष पद्य रचनेवाली और मनोहर कवितावाली (सभी) विद्यायें प्राप्त होती है। ४५. इस स्तोत्र का कोई (विलक्षण) ऐसा विश्वास करानेवाला अचिंत्य प्रभाव है। श्री शंभुकी आज्ञा से सभी सिद्धियाँ इस स्तोत्र में स्थापित है। ४६. । समाप्तम् । ५२ । श्री सरस्वतीकवचम् । गुरु उवाच श्रृणु शिष्य ! प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम् । धृत्वा सततं सर्वे: प्रपाठयोऽयं स्तवः शुभः ॥ अस्य श्रीसरस्वतीस्तोत्रकवचस्य प्रजापतिर्ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः, शारदादेवता, 'सर्वतत्त्वपरिज्ञाने सर्वार्थसाधनेषु च । कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्तितः । । ' इति पठित्वा विनियोगं कुर्यात् । ॐ श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः । ॐ श्रीं वाग्देवताये स्वाहा भालं मे सर्वदाऽवतु । ॐ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रे पातु निरन्तरम् । ॐ ह्रीं श्रीं भगवत्यै सरस्वत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदाऽवतु । ॐ ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वदाऽवतु । ॐ ह्रीं विद्याऽधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा चोष्ठं सदाऽवतु । ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्मये स्वाहेति दन्तपङ्क्तिं सदाऽवतु । ॐ ऐं इत्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदाऽवतु । ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धौ मे श्रोः सदाऽवतु । ॐ ह्रीं विद्याऽधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदाऽवतु । ॐ ह्रीं विद्याऽभिस्वरुपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम् । ॐ ह्रीं क्लीं वाण्यै स्वाहेति मम हस्तो सदाऽवतु । ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदाऽवतु । ॐ वागधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा सर्व सदाऽवतु । तत्पश्चादाशाबन्धं कुर्यात् - १३३ For Private & Personal Use Only ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदाऽवतु । ॐ सर्वजिह्वाऽग्रवासिन्यै स्वाहाऽग्निदिशि रक्षतु । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा । www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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