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________________ हे माँ, प्रस्तुत विषय के ज्ञेय तत्त्व से व सुरभि से शोभित, पुस्तकमंडित एवं नयनसुभग तुम्हारा बाया हाथ मुझे स्वस्तिदायक हो । (एवं) ज्ञानमुद्रा प्रदर्शक, नवीन मुझे प्रवाल की वल्ली सदृश और रक्त एवं सरल अंगुलीवाला दाया हाथ मेरी भीति को दर करनेवाला हो। हे माँ ! पापजाल के मूल की दहनक्रीडा से कठोर, करुणामृत से कोमल तुम्हारी दृष्टि मुझ पर सिद्धियों से भरपूर होकर फैले। जिसके प्रभाव से अपने अभीष्ट प्रबंध की लहरी के श्रवणकुतूहलसे चुम्बित अन्तःकरणवाले विद्वज्जनों के योग्य गुणवती वाणी की मैं रचना कर सकूँ। हे माँ ! आधारचक्र के चतुर्दलकमल में वाग्बीज (एँ) के गर्भमें स्थित तुम्हारी मैं पूजा करता हूँ। तू अकार आदि के प्रत्यावर्तन से (मातृकाक्षर-ध्यान से) पुष्पित होकर उर्ध्वगामिनी मायालता (कुंडलिनी) है । जो सहस्रार पद्म में उछलती खेलती सुधा के कल्लोलों के समूह के भ्रमण-चमत्कार करने में अलौकिक है।८. (सोऽहं) तुझमें तन्मय मैं तेरे करुणाकटाक्ष का ही आश्रय लेकर पांचो इन्द्रियों के मार्ग मे घूमते मन को वापस खींचकर स्थिर हुआ हूँ। (अत:) शिवजी के मस्तक पर स्थित चन्द्रकला में से टपकते अमृतसे स्वच्छन्द बने हिमालय की हिमशिला समान शोभायमान भारती (वाणी) मेरे जिह्वा मंडप को आलिगित करे। कारोत्तर (हसौं) का जाप करता हूँ, इसके प्रभाव से मेरी वाणी इस तरह अद्भुत रूप से झूम उठे कि जिसका रसपान करके डौलते हुए धीरपुरुष मस्तक झुका- झुकाकर मुकुट में जडित मणियों से मानों (तेरी) आरति उतारे। ___ चूडा में स्थित चंद्रकला में से निरन्तर टपकते अमृतबिन्दुओं की शोभा से आभूषण रुप बने अक्षसूत्र के वलय को सुंदरतया धारण करती हुई तू मंत्रगर्भित प्रत्यक्षतया प्रवर्तित तेरे ही बीज (मंत्र) का जाप करती हो । वह तू, हे अंबा! (अपने) कमनीय हाथ से मुझे अत्यधिक श्रेय प्रदान कर। १४. मैं उस वाणी-स्वामिनी की (अर्थात् तेरी) निरंतर सेवा करता हूँ, जो चन्द्र के खंड समान श्वेत कांति की श्रेणि-शोभा से अत्यन्त मनोहर, निरंतर प्रफुल्लित कमल में स्वस्तिकासन में स्थित होकर प्रकाशमान हो रही है एवं जो बायें पैर पर स्थापित हस्त में पुस्तक धारण करने में प्रीति रखती है। (उस के प्रभाव से) सभी विषयों में विलास करनेवाले पुष्ट असीम सारस्वतप्रवाह की लहरी की अद्भुत तरंगो से मनोहर ऐसी मेरी वाणी का प्रवाह इस तरह प्रकाशित होने लगा कि जिसे सुनकर दोलायमान मस्तक एवं अर्धनिमीलित आँखो से डौलते हए कविजन चंद्र की कला को भी लज्जित कर दें। ऐं क्लीं सौं - इन तीन बीजमंत्रों का ध्यान धरने के लिए मैं मातृकाओं के साथ विलोम (पश्चानुपूर्वी) पद्धति से अनुसंधान करके सभी बंधन को छेदनेवाली अन्तर्जल्पा वाणी के द्वारा, हे महेश्वरी, १०० मात्रा का जप करता हूँ। उसके प्रभाव से सारस्वत सार्वभौम की मेरी पदवी ऐसी देदीप्यमान हो कि जहाँ आज्ञाधीन ऐसे सेंकडो महाकवि मेरी उदार वाणी को चूमे एवं चैत्रमास में उत्पन्न, केलि कोकिल के कूहकार से श्लाधनीय पंचमसूर के मधुर गान को भी भारभूत माने। १८. हे माँ ! मातृका से विदर्भित एवं गर्भस्थ अनाहत के स्वच्छन्द ध्वनि द्वारा जिसका पान किया जा सके ऐसे मधु को मैं सुषुम्णा के पर्वत में क्ष से अतक के वर्गों के विपरीत उच्चार द्वारा बार बार पीता हूँ। सचमुच, मायामय (मायाबीजरूप) तेरा तेज स्वाधीन (सहस्रार में से स्यन्दित) अमृत सागरसे भी अत्यन्तासुंदर (मधुर) है। १०. तुझमें चारों तरफ भ्रमणशील (एवं अनाहत ध्वनि से भी अत्यन्त मधुर) उस सारस्वत प्रसाद को मुझे प्रदान कर कि जिसके आगे, नंदनवन के चन्दनवृक्षों की छाया में पुष्पमैरेय (पुष्पमधु) के आस्वादन से अति प्रसन्न चित्तवाली उन्मत्त रूपांगनाओं के वीणावादन से तरंगित भरपूर चमत्कार भी फीका सा लगे। ११. हे माता ! तीन (ऐं क्ली हसौं) मंत्रबीजरूपी शरीर धारिणी करुणा की अमृतसरिता एवं मेधामयी स्वरूप तेरा, आधारचक्र, हृदय एवं सहसार में अनुक्रम से अनुसंधान करके निरंतर जप करनेवाले मेरे सभी अंग, स्वायत्त अनुपम स्वभावदशा के अमृता स्वादवाले प्रज्ञानजल के चुलुकपान (चुल्लू भर पान) से पुलकित होकर पुष्ट बनें। १२. हे माँ ! मैं इन वाग्बीज (एँ), कामराजबीज (क्ली) एवं ॐ वीणा, पुस्तक, अक्षसूत्र वलय एवं विकसित कमल को रक्त हथेली में धारण करके विलास करनेवाली वाग्देवी का मैं नित्य ' ह्रीं वद वद वाग्वादिनी स्वाहा' रूप वर्णों से पाप पुंज को विशीर्ण करनेवाली-ऐसी तुम्हारा ध्यान करता हूँ। अत: हे माँ ! तू मेरा ऐसा विद्यासाम्राज्य विस्तीर्ण कर कि जिसका सिंहासन चंद्रिका एवं सुगंध से भी सुंदर व कीर्ति के प्रसार से सेवनीय है। काल-आज्ञा से शिवलोक तक सभी उदरों के भरणपोषण में जो समर्थ है और अंत:प्रज्ञाके परिपाक से पुष्ट परमानंद की प्रतिष्ठा का जो स्थान है। २०. जैसे कि मानों चंद्रकला में से निर्मित किया गया हो ऐसा १३१ Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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