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________________ ૨૧ ૨૨ તેઓની લક્ષ્મી પવિત્ર થાય છે. ૧૯૯૩ની સાલમાં શ્રી ગૌતમસ્વામિને કેવલજ્ઞાન પ્રાપ્તિના (બેસતા વર્ષે શુભદિને શ્રી જિનશાસન રસિક જેનોની નગરી એવા ઉત્તમ રાજનગર (અમદાવાદ)માં. વિશિષ્ટજ્ઞાન સમૂહના લાભવાની, વિશાળ અર્થવાળી, પ્રણવ (ૐ કાર) વિગેરે મ–બીજવાળી, જ્ઞાનના અર્થી ભવ્યજીવોના અંગસ્વરૂપી મૃતદેવીની વિંશિકા (વીશશ્લોકના પ્રમાણવાળી સ્તુતિ) ભણવી જોઈએ. २३ पूज्यश्री नेभिसूरि (म.सा.) ना शिष्य श्री पद्मसूरि भ. સાહેબે મુનિ મોક્ષાનંદ વિ. ના પઠન માટે સરલ રહસ્યવાળી આ રચના કરી છે. २४ -: संपूर्ण: भाव से आचार्य (सूरि वर)प्रयाण (विहार) के स्मरण कालमें, चित्त में जिसका स्थापन कर संघको कल्याणकारी वाणी मांगलिक कहते हैं, उसका मैं हररोज ध्यान करता हूँ। ८ श्रुतसागर का पार पाने के लिए इष्ट (मनोवांछित) देने में चिंतामणि रत्न के समान, महाशक्तिशाली, दिव्य अंगों की कांति से देदीप्यमान, राजहंस के वाहन वाली (देवी) की मैं स्तुति करता हूँ पुस्तक और माला से शोभित दाहिने हाथवाली, कल्याणकारी, चन्द्र के समान मुखवाली, कमल और वीणा से अलंकृत बायें हाथवाली, भगवती (देवी) की मैं स्तुति करता हूँ। 30 अनुवाद हे वागीश्वरी (देवी)! मुझ पर बहुत ही करुणा करके, तू प्रसन्न हो, जिसके कारण मैं कवित्व एवं सम्पूर्ण आगमतत्त्व के विज्ञान (रहस्य) को प्राप्त करूँ। हे सामर्थ्यमयी देवी माता सरस्वती! भक्तजन हमेशा 'ॐ ह्रीं क्लीं वाग्वादिनी वद वद तुभ्यं नमः' इस मंत्र का जाप किया करें। श्री स्थंभन (खम्भात नगर) के स्वामी पार्श्वनाथ भगवान् और गुरुवर नेमिसूरीश्वरजी को नमस्कार कर के मैं (अभ्युदय) उन्नति देनेवाले सरस्वती-स्तोत्र की भक्ति भाव से रचना करता हूँ। १ सुन्दर (३४ चौंतीस) अतिशययुक्त स्वरूपवाले जिनेश्व प्रभु के मुखकमल में वास करनेवाली, मनोहर, नय-भंग-प्रमाण के भावोंवाली प्रभुजीकी वाणी हमें वरदान देनेवाली हो। २ उस (वाणी) के अधिष्ठायक (स्वामि) भाव को प्राप्त की हुई चार हाथोंवाली श्रुतदेवता, श्रीगौतम (गणधर) पद कीभावस्वरूपा सरस्वती (देवी) मुझे वरदान देनेवाली हो। प्रवचन (प्रभुवचन) के भक्त भव्यजन जिस (देवी) का स्मरण कर के श्रेष्ठ (सम्यग्) बुद्धि प्राप्त करते हैं (वह) कमल के आसन पर विराजमान सरस्वती हमको वरदान देनेवाली हो ४ विघ्नों का विसर्जन करने में प्रवीण, अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करनेवाली, निर्मल (पवित्र) वर्णवाली, श्वेत वस्त्र और माला वाली आनंदप्रद (सौम्य) भारतीदेवी को मैं प्रणाम करता हूँ। ५ मनोहर अलंकारों (गहनों) से शोभित, निर्मल दर्शन और विशुद्ध उत्तम बोध (ज्ञान) वाली, गीतरति इन्द्र की पटरानी शारदामाता को मैं नमस्कार करता हूँ। जिसका ध्यान करना विवेकी मनुष्यों के लिए दिव्य आनन्द का कारण है, जो संघ की उन्नति करने तत्पर बनी है, भाषा (वाणी) के स्वरूप में उसका मैं हमेश ध्यान करता हूँ। मंत्रों में अनुभव सिद्ध (श्री) मलयगिरि, हेमचन्द्राचार्य, देवेन्द्रसूरि म. वृद्धवादी (सूरि), मल्लवादि (सूरि), पूज्य तथा छठे बप्पभट्ट गुरु महाराज। आपकी करुणारूपी अमृत से सिंचे हुए ये छह संघमान्य सुन्दर वचनवाले और शासन को प्रकाशित करने में चतुर हुए, (अत:) मैं आपकी स्तुति करता हूँ। जगत में प्रसिद्ध है कि आपके चरणों की सेवा के योग को प्राप्त हंस भी विवेकवाला हुआ था, (तो) जिनके हृदय में आपके चरण हैं उनको तो यहाँ और कहना ही क्या ? हे माता ! तुम्हारे चरण कमल में चंचल हृदय, हंस की तरह कब प्रसन्न होगा ? अत्यन्ततया एकाग्रता को कब प्राप्त करेगा? स्पष्टतया तुम कहो। तुम कहो। विद्वान् पुरुष ग्रंथ के प्रारंभ में (नव-नौ) रसों को सजाने में अत्यन्त निपुण ऐसी, जिसे प्रणाम करके आनन्द पूर्वक ग्रंथ की पूर्णाहूति (समाप्ति) प्राप्त करते है, उस माता की मैं स्तुति करता हूँ। श्रेष्ठ अजारी गाँव में, शत्रुजय (पालीताना), रैवताचल (जूनागढ) वगैरह तीर्थोंमें, राजनगर (अहमदाबाद) रांतेज, और पाटन में विराजमान माता - की स्तुति मैं करता हूँ। १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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