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________________ 3४ अनुवाद हे सरस्वती माता ! सब प्रकार के देवो के मुकुटो से नमस्कार (प्रेम) किये गये तुम्हारे दोनो चरण कमल (लोक में) जय पाते हैं। जो चरण-कमल हृदय में स्थापित किया हुए, मनुष्य की जड़ता का नाश करनेवाले एवं रज से मुक्त, अपूर्वता का आश्रय करते हैं। देखती हो वह कौन कौन से गुणों से सुशोभित नहीं होता? अर्थात् वह सब गुणों से भूषित होता है। हे (सरस्वती) देवी ! (आपकी कृपा प्राप्त) वे केवली भगवान संसार के समस्त पदार्थो को देखते और जानते है, किन्तु आपकी कृपा से रहित (आपके बिना) वे देखते भी नहीं और जानते भी नहीं हैं। उन जगत्प्रभु के ज्ञान का कारण भी आप ही हैं। दीर्घ काल से इस संसाररूपी समुद्र में परिभ्रमण करते हुए सैंकडो महाक्लेशो से मनुष्य-जन्म मिला है, लेकिन है (सरस्वती) देवी ! आपकी कृपा के बिना मानव इस उत्तम पुरुषार्थ के साधन (मानव जन्म) को फिर नष्ट कर देता है। ___ हे माता ! कदाचित् तुम्हारी कृपा के बिना श्रुत (शास्त्र) का अध्ययन किया गया तो भी वास्तविक तत्त्व का निश्चय नहीं होता। इस लिए उस मनुष्य में विवेक (हित-अहित की पहिचान) कहाँ से हो? आपसे जो विमुक्त (विहीन) हो गया है उसका तो जन्म निफरत हे भारती देवी ! आपका जो तेज है सोन दिवस की अपेक्षा रखता है, न रात्रिकी। वह अंदर और बाहर की भी अपेक्षा नहीं रखता । वह तेज, ताप (उष्णता) करनेवाला नहीं है, और जड़ता करनेवाला भी नहीं, (किन्तु) समस्त वस्तुओं का प्रकाश करनेवाला है। मैं उसकी स्तुति करता हूँ। हे सरस्वती माता! आपकी कृपा से ही प्राप्त किये हुए अभ्यास (चातुर्य) वाला मैं, मानों आपकी स्तुति करने के लिए अभी कवि बना हूँ। जैसे गंगा नदी के जल की ही भरी हुई अंजलि वाला मैं गंगानदी को अर्घ्य देनेवाला होता हूँ। हे सरस्वती देवी ! आपकी (ज्ञान)लक्ष्मी की (शोभा की) स्तुति करते हुए श्रुतकेवली (चौदहपूर्वी) भी यह स्वीकार करता है कि में असमर्थ हूँ। तब मुझ जैसे (अज्ञ) तो 'तुम जय पाओ' ऐसे दो (ज, य) अक्षर बोलते हैं सो भी साहस ही है। हे सरस्वतीमाता ! आप इस तीन लोक रूपी घर में रहे हुए (विराजमान) सम्यग् ज्ञान मय उत्कृष्ट दीपक रूप है। (उस दीपक की कृपा से) सम्यग्दृष्टि वाले, मनुष्य तीनों लोको में रही हुई समस्त वस्तुओं (जीव-अजीव वगैरह)के समूह को अच्छी तरह देखते हैं। हे माता! घर में दीपक का आश्रय लेकर मनुष्य जो इच्छित हो सो सारी वस्तुपा लेता है, वैसे महान ऋषिमुनि पहले आपका आश्रय लेकर उस (प्रसिद्ध) मोक्ष-पद का आश्रय लेते हैं। १२ हे माता ! तुम में अनेक पद (तिङन्त-सुबन्त) है, तो भी तुम प्राणियों को एक पद (मोक्ष) ही देती हो एवं तुम चारो ओर से उज्ज्वल हो तो भी सुवर्ण विग्रही एवं (सुवर्ण को विशेषत: ग्रहण करनेवाली । अर्थात् सु श्रेष्ठ, वर्ण अक्षर रूपी शरीर को धारणा करनेवाली हो। अत: संसार में आश्चर्यजनक चेष्टाए करनेवाली हो। हे माता सरस्वती ! जब तुमने अरिहन्त प्रभु के मुख में उत्कर्मा (दिव्य ध्वनि) को प्राप्त किया और जब नितान्त समुद्र के समान गंभीर आकृति थी, तब तुमने अनेक (सभी) भाषा स्वरूपों में प्रकट होकर किसको हृदय में आश्चर्य उत्पन्न नहीं किया। अर्थात् प्रभुमुख की वाणी स्व-स्व भाषा में सबको समझने मे आने के कारण किसे ऐसा आश्चर्य नहीं होता? हे देवी ! आपका जो मार्ग है वह आकाश के समान अत्यन्त निर्मल है और अत्यन्त चौड़ा है। इस मार्ग पर कौन से पंडित नहीं गये? (अर्थात् सभी पंडित गये हैं।) तो भी इस मार्ग पर क्षणभर ऐसा मालूम होता है मानो वह अक्षुण्ण (किसी के प्रयाण से अछूत) ही है। है माता ! आपके प्रभावसे समस्त जगत को विस्मित करनेवाली राजाओकी कविता आदि होती है। इसमें क्या आश्चर्य है ? किन्तु कठिन तप करनेवाले मुनि और महात्मा जिस स्थान (मोक्ष) की कामना करते हैं उस पद को भी आप की कृपा से शीघ्र प्राप्त करते हैं। हे वाणि ! (सरस्वति) जिस मनुष्य में आप की कला (कृपा) नहीं वह मनुष्य दीर्घ कालतक पढते हुए भी शास्त्र को नहीं जान सकता, किन्तु जिस (नर) को - तुम प्रेममय नेत्र से थोडा समय भी हे सरस्वती! आपके बिना आँखवाले मनुष्य को भी विद्वान अंधा (बिना आँखो का) ही समझते हैं - अतः इन तीनों (स्वर्ग, मृत्यु-पाताल) लोक का यथार्थ दर्शन के लिए आप ही नेवस्वरूप मनुष्य का जीवन वाणी (वचन) से सफलता प्राप्त करता है, और कवित्व एवं वक्तृत्व के गुण में वही वाणी रहती है। ये दोनो गुण दुर्लभ हैं, किन्तु तुम्हारी - लेशमात्र कृपा से भी मनुष्यो को प्राप्त होते है। ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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