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________________ अर्थ में सादृश्य मिल जाय तो उन दोनों का सादृश्य तुम्हारे चरणको ग्रहण करने के कारण ही हो । १३. हे वाणी की स्वामिनी तेरी मणिमय, सुवर्ण से बनी कटिमेखला (करधनी) की फैलती हुई रुनझुन, मुझे एकदम स्फुरित मतवाला बना देती हैं। जिसमें से चमकते हुए तर्कके उल्लास और विलास से युक्त कवियों के मन को हरनेवाला वचनका विलास व्यक्तरूप में विलसता हैं। १४. हे देवी! तेरा नाभि बिल की जैसा गहरा है, वहाँ उदर पर बिखरी हुई अंधकार जैसी स्निग्ध एवं मुग्ध रोमराजि ऐसी मालूम होती है मानों युवा नागिन (सर्पिणी) तेरे बांके केशपाश रूपी मयूर के भय से अत्यंत चंचल होकर बिल में प्रवेश कर रही हो। वह कटिसूत्र में श्याममणि की शिखा के समान विजयवती हैं । १५. उखाड़े हुए आलान स्तंभके बिल के समान नाभि से निकलती हुई तुम्हारी पतली रोमराजिरुपी अंकुश ने पतली कमररूपी मृगेन्द्र के भय से भागते हुए तारुण्य रुपी उन्मत्त हाथी को वश कर के मानो स्तनरूपी टीले के पास बांधा हो ऐसा लगता है। १६. - तेरा नाभिस्थल मानों जगत को वश करने के लिए स्थानभूत रम्य होम - कुंड हो ऐसा शोभित है, वह होमकुंड कामदेवरूपी यज्ञिक का हो ऐसा लगता है और तेरी नाभि के ऊपर की श्याम रोमावली धुएँ की भ्रम करनेवाली बनी । उससे इन्द्र के सारे ऐश्वर्य को तुमने वशमें कर लिया है। १७. हे सती ! तेरे उदर पर की रोमावली, बुनी हुई डोरी के समान शोभित है एवं और तेरी नाभि का कूप लावण्य और कान्ति के जल से परिपूर्ण है। तो तेरे स्तनरूपी घडा से सुशोभित, हे जननी ! अपने तृषातुर हुए पुत्र को पयः पान के द्वारा आनंदिर कर । १८. तुम्हारा नाभिरूपी ग्रह गंभीर और मेघ के समान नीलद्युति वाला है। उसमें चक्राकार घूमती हुई ज्योति रूपी जल है एवं किरणरूपी पंक (कीचड) है, वहाँ तुम्हारी सुशोभित रोमराज की कांतिरूपी धुएँ की पंक्ति जो फैल रही है सो हेतु का विपर्यास होने से, अनुमान करनेवाले पंडितों के लिए भ्रांति का स्थान है । जहाँ धुआं होता है वहाँ अग्नि होती है, उसके बदले यहां जल का कुंड है अतः हेतु का विपर्यास है । १९. तेरे मुष्टि-मेय मध्यभाग जो त्रिवलीरूप है सो सरस सुचारु रुप से रचे गये तेरे नाभि-रूपी सरोवर में कामदेव ने मानों तीन सोपान बनाये हों ऐसे शोभता है। उन सोपानों के द्वारा कामदेव स्नान करके, स्तन से उत्पन्न हुए दर्भ से अर्घ्यंजलिका ऐसा विधान करता है कि जिससे तीनों लोको में विद्यमान मुनियों के मन भी अहो ! उन्मत्त हो जाते हैं। २०. Jain Education International तेरे अमन्द आनन्दरुपी जो स्फुरित मकरन्द है उसीके एकमात्र रसिक, अनुभूति साम्राज्य के भवनरूप, पंडितो के समूहों ने असंदिग्धरूप से एक एक अंग की स्तुति और गुण-गान का गान करने में एवं सत् असत् की वाचाल प्रवृत्ति करते हुए भी तेरे उदर को नितान्त कृश कर दिया। २१. तुम्हारा नूतन स्तनयुग्म जो देदीप्यमान सुवर्णकलश की भ्रान्ति उत्पन्न करता है सो अमन्दरुप से मंदार पुष्प के कोष का अनुकरण करता है, क्योंकि ( स्तन बनाने से पहले) विधाता ने पूर्वाभ्यास में कुंभ के आकार में हाथी के बच्चे के गंडस्थल को रेखांकनरूप बनाया था। २२. तू मध्यभाग में बिल्कुल पतली है। तुम्हारा स्तनयुग्म पर्वत सा पुष्ट है। तू शरद पूर्णिमा के चंद्र के समान सुन्दर मुखवाली हो। तो श्वेतमुख क्यो है ? तुम अत्यन्त कोमल हो एवं स्तनयुग्म दृढ तथा कठोर है। सचमुच तुम्हारे अपने स्वभाव से विपरीत होने के कारण ही मित्र की तरह स्तनयुग्म बाहर निकल आया है। २३. सरोवर के तटपर चन्द्रमा के समान श्वेत एवं शीतल जलमें बसनेवाला चक्रवाक का जोड़ा रात में चन्द्रके उदय से उत्पन्न हुए विरह के कारण तुम्हारे वक्षस्थलरूपी सरोवर में बसा और वहीं तुम्हारे मुखरूपी चन्द्रमा का उदय हुआ । सचमुच ! विधाता का निर्माण किया 'अन्यथा नहीं होता । हुआ २४. तुम्हारा स्तनयुगल कामदेव और यौवनरूपी राजा के मोतियोंकी माला से अलंकृत, गंगा किनारे तने हुए तम्बुओं की तरह शोभित है । अथवा स्तनयुगल ऐसा शोभता है मानो मुद्रित किये गये पूर्ण कलशों का युग्म हो जिस की शोभा मोतियो की माला तथा गंगा के जल से वृद्धि पाती है। २५. यह मेरुगिरि एवं हिमालय दोनों एकत्र होकर भी अपनी गरिमा की तुलना को यदि चाहें तो स्वर्गंगा के श्वेत उज्ज्वल जल की लहरों से प्रक्षालित शिखरवाले होते हुए भी मोतियों के हार की शोभा से चमकते हुए तुम्हारे स्तन युगल को पराजित करने में समर्थ नहीं होते । २६. आपके कंठरुपी कदलिकी बराबरी शंख नहीं कर सकता । तीन रेखाओं द्वारा तीनों लोक को मानो भीतर छिपा दिया है, एवं वीणा के वादन में सुन्दर रस से परिपूर्ण संगीत की रचना के विधान में विधाताने मानो तीनो ग्रामो को विश्रामगृह बनाया है। २७. तुम्हारे कंठ में से मधु से भी मधुर अत्यंत सुंदर कूजन को कान भर कर सुनने के बाद कोकिल के कुल का वह मधुर ध्वनि सीखने की चाह हुई । तब, अमावास्या की रात्रिमें ही उत्पन्न हुई वह सिद्धि स्थिर हो जाती है अतः कोयल कुहू कुहू ऐसी ध्वनि करने लगी । २८. ७२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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