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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ अर्थ कहते है. जैसें कहके पुण्यके समूह करके उपचित होआ हूआ उचितों विषे उचित प्रवृत्तिके अर्थे जैसें कहे "वेयावच्च" वैयावच्चके करणहार, जिनशासनकों साहाय्यकारी गोमुख यक्षादिक सर्वलोककों शांति करनेवाले, सम्यकद्दष्टियोंकों समाधि करणहारे. इन संबंधि इनकों आश्रित्य होके कायोत्सर्ग करता हूं. इहां वंदणवत्तिआए इत्यादि पाठ न कहना. तिनके अविरत होनेसें अन्यत्रोच्छसितेनेत्यादि पूर्ववत् कहना ॥
तथा कलिकाल सर्वज्ञ बिरुद धारक साढेतीन कोटी ग्रंथका कर्ता जैसे श्रीहेमचंद्रसूरिजीने योगशास्त्रमें चिरंतन पूर्वाचार्योंकी रचित गाथा करके प्रतिक्रमणेका विधि लिखा है. तिसमें दैवसिकप्रतिक्रमणेकी आदिमें चैत्यवंदना चार थुइसें करनी कही है. तथा श्रुतदेवता क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करना और तिनकी थुइ कहनी कही है इसीतरें श्राद्धविधिमें पाठ लिखा है।
(३४) तथा वृदारुवृत्ति पाठः । तत्र दैवसिकादिप्रतिक्रमणविधिरमूभ्यो गाथाभ्योवसेयः, तत्रेदं दैवसिकं । जिण मुणिवंदण अइआ, रुस्सगो पुत्ति वंदणिआलोए ॥ सुत्तं वंदण खामण, वंदण तिन्नेव उस्सग्गो ॥१॥ चरणे दंसणनाणे, उज्झोआदुन्निइक्कइक्कोअ ॥ सुअदेवयाओ दुस्सग्गा, पुत्ती वंदण थुई थुत्तं ॥२॥ इत्यादि.
इहां वृंदारुवृत्तिमें प्रतिक्रमेणेकी आदिमें चैत्यवंदना और श्रुतदेवताका क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करणा कहा है अरु थुइभी कहनी.
तथा चैत्यवंदना लघु भाष्ये ॥ सुदिट्ठिसुर समरणाचरिमे ॥४५॥ अर्थ :- चैत्यवंदनाके बारमें अधिकारमें सम्यकद्दष्टी देवताका कायोत्सर्ग करना और थुइ कहनी.
(३५) तथा प्रतिक्रमणागर्भित हेतु ग्रंथमें कह्या है सो पाठ लिखतें हैं ॥ अथ चावश्यकारंभे साधुः श्रावकश्चादौ श्रीदेवगुरुवंदनं विधत्ते,
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