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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ चलनेसें भले मार्गसें कदापि पुरुष भ्रष्ट नही होता है, परंतु पूर्वाचार्योंके चलेहूए मार्गमें चलनेसे अनेक मिथ्या विकल्पोंसे छूटके पुरुष भावशुद्धिकों प्राप्त होता है इस वास्ते पूर्वाचार्योका चलाया शासनदेवतायोंका कायोत्सर्ग नित्य चैत्यवंदनामें करना ॥८७॥ पारिय काउस्सग्गो, परमेठीणंच कयनमोक्कारो ॥ वेयावच्चगराणं, देज्जथुइ जरकपमुहाणं ॥८८|| व्याख्या :कायोत्सर्ग पारकें, परमेष्टीकों नमस्कार करके, वैयावृत्तके करनेवाले शासनदेवतायोंकी थुइ कहे ।।८८।।
जैसा प्रगट भाष्यका पाठ देखके जो कोइ चोथी थुइका निषेध करे तिस्कों जैनमतकी श्रद्धा रहितके सिवाय अन्य कौनसें शब्द करके बुलाना ?
जैसे जैसे बड़े बड़े महान् शास्त्रोंके प्रगट पाठ है तोभी श्रीरत्नविजयजी अरु श्रीधनविजयजीकों देखनेमें नही आते है सो कर्मकी विषमगतिही हेतु है अब दूसरा क्या कहनां? ॥
(२८) तथा चौरासी हजार श्लोक प्रमाण स्याद्वादरत्नाकर ग्रंथका कर्ता सुविहित श्रीदेवसूरिजीकी करी यति दिनचर्याका पाठ यहां लिखते हैं ॥ नवकारेण जहन्ना, दंडगथुइजुअलमज्जिमा नेआ ॥ उक्कोसा विहिपुव्वग्ग सक्कथय पंचनिम्माया ॥६५॥ व्याख्या :नमस्कारेणांजलिबंधेन शिरोनमनादिरुपप्रणाममात्रेण यद्वा नमो अरिहंताणमित्यादिना वा एकेन श्लोकादिरुपेण नमस्कारेणेति जातिनिर्देशाद्बहुभिरपि नमस्कारणे प्रणिपातापरनामतया प्रणिपातदंडकेनैकेन मध्या मध्यमा दंडकश्च अरिहंतचेइयाणमित्याघकस्तुतिश्चैका प्रतीता तदंते एव या दीयते ते एव युगलं यस्याः सा दंडकस्तुति युगला चैत्यवंदना नमस्कार कथनानंतरं शक्रस्तवोप्यादौ भण्यते वादंडयोः शक्रस्तवचैत्यस्तवरुपयोर्युगं स्तुत्योश्च युगं यत्र सा दंडस्तुतियुगला इह वैका स्तुतिश्चैत्यवंदना गंडककायोत्सर्गानंतरं
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