________________
चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ पुव्वपुरिसाणमग्गो, वच्चंतो नेय चुक्कइ सुमग्गा ॥ पाउणइ भावसुद्धि, सुच्चइ मिच्छा विगप्पेहि ॥८७॥
(२७) इनकी भाषा लिखते है ॥ वैयावृत्त्य कहिये जिनमंदिरकी रक्षा करनी, परिस्थापनादि जिनमतका कार्य करना, शांति सो जिनभवनमें प्रत्यनीकके करे हूए उपसर्गोका निवारण करना ॥७६|| सम्यकद्दष्टि श्रीसंघ तिसकों दो प्रकारकी समाधिके करनेवाले ऐसा शील कहते स्वभाव है जिन साधर्मी देवतायोंका ॥७७॥ तिनकू सन्मान देनेके वास्ते अन्नत्थउससियाए आदि आगार करनेसें अबमें कायोत्सर्ग करता हूं ॥७८॥ इहां कोइ कहे के अविरति देवतायोंका कायोत्सर्ग करना यह हम श्रावक और साधुयोंकों ठीक संगत नही है ॥७९॥ क्यों के गुणहीनकू वंदना करनी यह सर्वविरति अरु देशविरतिकू युक्त नही है. अब इसका उत्तर गुरु कहते है. हे भव्य तेरा कहना सत्य है इस वास्तेही इहां नहीं कहा ॥८०॥ वंदण पूयण सक्कार हेतु वास्तेमें कायोत्सर्ग करता हूं, ऐसा नही कहा; परंतु साधर्मी वत्सल तो जैन मतमें अल्पगुणवालेके साथभी करना इसवास्ते यह जो शासन देवतायोंका कायोत्सर्ग करना है सो बहुमान देणे रुप साधर्मी वत्सल है ॥८१॥ क्यों के यह शासन देवता प्रायें प्रमादी है, इसवास्ते कायोत्सर्गद्वारा जाग्रत करेहूए शासनकी उन्नति करनेमें उत्साह धारण करते है ॥८२॥ शास्त्रोमें सुनते है के सिरिकंता, मनोरमा, सुभद्रा अरु अभयकुमारादिकोंको शासनदेवतायोंने साह्य करा ॥८३॥ श्रीसंघके कायोत्सर्ग करनेसें गोष्ठामाहिल्लके विवादमें शासनदेवता सीमंधरस्वामिके पास गये, वहां जाकर सत्यका निर्णय करा ॥८४॥ शेष संघके कायोत्सर्ग करनेसें यक्षा साध्वीकों शासन देवी सीमंधरस्वामीके पास लेगइ ॥८५॥ इत्यादिक कारणो करके चैत्यवंदनामें देवतायोंके साथ साधर्मी वच्छलरुप कायोत्सर्ग पूर्वाचार्योने करा है परंतु देवतायोंकों वंदणा वास्ते नही करा है ॥८६।। इसवास्ते पूर्वाचार्योंके मार्गमें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org