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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ प्रकारे है ॥६६॥ नमस्कार मात्र करके जो जघन्य वंदना कही है । सो जघन्यवंदनाका प्रथम जघन्य जघन्य भेद कहा है ॥१।। और दूसरी जो एक दंडक अरु एक स्तुतिसें मध्यम चैत्यवंदना कही है सो मध्यम मध्यम नामा मध्यम चैत्यवंदनाका दूसरा भेद कहा है ॥२॥ ६७॥ संपुन्ना उक्कोसा यह पाठसें संपूर्ण उत्कृष्ट उत्कृष्ट वंदनाका तीसरा उत्कृष्टोत्कृष्ट भेद कहा है ।। इन तीनो उपलक्षण रुप भेद कहनेसें शेष एकेक वंदनाके स्वजातीय दो दो भेदभी ग्रहण करना । एवं सर्व नव भेद चैत्यवंदनाके पंचाशकजीकी गाथायोसें सिद्ध हुए हैं ।।६८॥ यह श्रीहरिभद्रसूरिजी जैनमतमें सूर्यसमान थे
और उत्तराध्ययनजीकी बृहद्वृत्तिका कर्ता श्रीशांतिसूरिजी महाप्रभावक, इनके रचे प्रकरण और भाष्यकों जो कोइ जैनमतिनाम धरा के प्रामाणिक न माने तिसके मिथ्याद्दष्टि होनेमें जैनमति कोइ भव्य शंका नही कर सक्ता है, इन दोनों आचार्योंने चोथी थुइ प्रमाणिक मानी है, सो आगे लिखेंगे । इति नवभेदसें चैत्यवंदनाका स्वरुप ॥
(१६) प्रश्न:- श्रीव्यवहारसूत्रकी भाष्यमें तीन थुइसें चैत्यवंदना करनी कही है. सो गाथा यह है ॥ तिन्निवा कट्टई जाव, थुइड तिसिलोइया ॥ ताव तच्छ अणुन्नायं, कारणेण परेणवि ॥१॥ अस्यार्थः ॥ श्रुतस्तवानंतरं तिस्त्रः स्तुतीस्त्रिश्लोकिकाः श्लोकत्रयप्रमाणा यावत् कुर्वते तावत्तत्र चैत्यायतने स्थानमनुज्ञातं कारणवशात् परेणाप्युपस्थानमनुज्ञातमिति वृत्तिः ॥ अस्य भाषा ॥ श्रुतस्तवानंतर तीन थुइ तीन श्लोक प्रमाण जहांतक कहियें तहांतक देहरेमें रहनेकी आज्ञा है, कारण होवेतो उपरांतभी रहे । औसा पाठ शास्त्रमें है तो फेर आप तीनथुइकी चैत्यवंदना क्यों नही मानते हो? ॥ उत्तरः- हे सौम्य तेरेकों इस गाथाका यथार्थ तात्पर्य मालुम नही है । इस वास्ते तुं तोतेकी तरें तीन थुइ तीन थुइ कहता है. इस गाथा का यह तात्पर्य
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