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________________ ३४० श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - २ येह पंचांगीका विरोधी है । भाष्यकारने तो उभय कालमें उत्कृष्ट चैत्यवंदनाके तीन भेदवाली चैत्यवंदना करनी कही है । और यह श्रीधनविजयजीने दैवसिक प्रतिक्रमणकी आदिमें जघन्य और जघन्योत्कृष्ट प्रकारे स्वकपोल कल्पनासे इस पोथीमें कितने ही पत्रे वृथा लिखके बिगाडे है। तथा इसने जितने आचार्योंके रचे ग्रंथ और सामाचारीयोंके पाठोंसे प्रतिक्रमणकी विधिमें जहां जहां सामान्य प्रकारे चैत्यवंदना लिखी है, तहां तहां चार थुइकी ही वंदना भाष्यकारके वचनोंसे सिद्ध होती है। इन भाष्यकारके वचन प्रमाणे सर्वाचार्योने प्रतिक्रमणकी आद्यंतमें चार थुइकी चैत्यवंदना लिखी है । परंतु इस श्रीधनविजयजीने तो अभिमान अन्यायके वश होकर उत्सूत्र लिखनेमें कसर नही रखी है; परंतु सो दुःखदाइ भी इसकों ही है । तपगच्छीय श्री जयचंद्रसूरि कृत प्रतिक्रमण गर्भहेतुमें, श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्याय कृत प्रतिक्रमण विधि स्वाध्यायमें, जिनप्रभसूरि कृत विधिप्रपामें, तथा बृहत् खरतरगच्छ सामाचारी आदि ग्रंथोंमें, दैवसिक प्रतिक्रमणकी विधिमें प्रगटपणें चार ४ थुइकी चैत्यवंदना लिखी है; और जैसे लिखी है, तैसेही इन गच्छोंके चतुविध संघमें आज तक प्रवर्ति चलती है । इस श्रीधनविजयजीने स्वकपोल कल्पनासें जो इन विधियोंके अर्थ अन्यथा करके लिखे है, सो क्या तपगच्छ खरतर गच्छमें कोइभी साधु यति शब्द शास्त्रका जाननेवाला इसने नही जाना है ? सो निःशंक होके उलटे उत्सूत्र रुप एक बडी स्थूल पोथी लिखके अपनी मूढता प्रगट करी है । इस पोथीकों देखके मूढलोक तो अपने मनमें समझेंगे कि, श्रीधनविजयजी महाराज बडे ज्ञानी है; और बहुत शास्त्रोंके जानकार है । क्योंकि, बहोत शास्त्रोंके पाठार्थ इस पोथीमें लिखे है, इस वास्ते बडेही पंडित है; परंतु, इसको थोथी पोथी जब पंडितोकी सभामें रखी जायगी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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