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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ जगे जघन्योत्कृष्ट प्रकारे चैत्यवंदन करनी लिखते है ऐसे पूर्वापर जैनशास्त्र और जैनसंघसें विरोध लिखनेवाले इन बिचारे अनाथोंकी क्या जाने कैसी अशुद्ध गति होवेगी? ॥३॥ मैं संघका विरोधी नही, किंतु संघानुयायी हुँ । और श्रीधनविजय-राजेंद्रसूरिजी तपगच्छ खरतरगच्छ उपकेशगच्छादि सर्व सद्गच्छ और संघके विरोधी है क्यों कि, पूर्वोक्त निंदा करनेसें यह दुर्लभबोधि होनेका बीज बोय रहे है, परंतु यह काम इनोंकों करना अच्छा नही है, आगे इनोकी मरजी ॥४||
पूर्वधर पूर्वाचार्य सामाचारीका मैं विरोधी नही हुं, तपगच्छकी सामाचारी पालनेसें, परंतु यह श्रीधनविजय-राजेंद्रसूरिजी इस पोथीके १८३ पृष्ठके लेखसें महा मृषावादी और पूर्वाचार्योकी सामाचारीके विरोधी सिद्ध होते है । क्यों कि इसने जो १३ ग्रंथो के नाम लिखे है, तिनमेसें एक आवश्यकचूर्णि बिना कोइभी ग्रंथ पूर्वधर पूर्वाचार्योका रचा हुआ नही है । इस वास्ते इनोका लेख इनोहीकों मृषावादी सूचन करता है। और इन पूर्वोक्त ग्रंथोमें जो पाठ लिया है, सो सर्व ही मैं सत्य करके मानता हुं. इस वास्ते मैं पूर्वाचार्योके लिखे ग्रंथोका विरोधी नही हुं, परंतु श्रीधनविजयराजेंद्रसूरिजी च्यार थुइ लिखने रचने और करनेवाले सर्व आचार्योके विरोधी है। तथा तपगच्छ खरतरगच्छोके आचार्योके निंदक और विरोधी है । तिनोंकी कही चौथी थुइ प्रतिक्रमणकी आद्यंतमें कहनी और श्रुतदेवताक्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करना, और थुइ दिन २ प्रत्ये कहनी नही मानते है; और माननेवालोंकी निंदा करते है । क्यों कि, श्री जयचंद्रसूरिजी और श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायजीने तो देवसिक प्रतिक्रमणके आदिमें च्यार थुइसे चैत्यवंदना करनी कही है । तिसके वास्ते यह श्रीधनविजयजीने स्वकपोल कल्पित महा झूठी क्लपना इस पोथीमें लिखी है, सो तो इस ही की अज्ञानता उत्सूत्र प्ररुपणा तपगच्छके सर्व आचार्योसे विरोधीता श्री संघके
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