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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ सिद्ध होता है कि, निश्चयमें सावद्य न लगे, और निश्चय भी मानना भगवानकी आज्ञा है, तो भगवानकी आज्ञासे पराङ्मुख हो कर निश्चयका व्यवच्छेद करता है, इसी वास्ते हम लिखते है कि, यह श्रीधनविजयजी मिथ्यादृष्टी है।
॥प्रश्न ॥ श्रीधनविजयजीने कहां निश्चयका व्यवच्छेद करा है।
॥ उत्तर ॥ इसने लिखा है कि, व्यवहारमें सावध है. तो इस ही लेखसें सिद्ध होता है कि निश्चयमें सावध नहीं । अब विचार करीए की जो कार्य सावध नही, उसके करनेमें जो निषेध करना यह भवभीरु प्राणीका काम है ? नही. तो इस मृषावादीने क्यों लिखा कि, चौथी थूइ प्रतिक्रमण की आदिमें करनी किसी भी जैनशास्त्रमें नही है । तथा चौथी थूइके निषेध वास्ते इसने जो इस पोथी थोथीमें स्वकपोल कल्पित वितंडावाद लिखा है, सो सर्व मृषावाद लिखा है. क्यों कि, जैसे लेख इसने लिखे है, वैसे लेख किसी भी जैनशास्त्रमें नहीं है।
(२५) पृष्ट १७४ में श्रीधनविजयजी लिखता है कि, श्रीआत्मारामजी पांच वस्तुके विरोधी है।
"एक तो जैनलिंगनो विरोधी, बीजो श्री शत्रुजय प्रमुख तीर्थनो विरोधी, त्रीजो जैनशास्त्रनो विरोधी, चोथो चतुर्विध श्री संघनो विरोधी, पांचमो पूर्वाचार्यनी सामाचारीनो विरोधी ।।
जैन लिंगनो विरोधी एवी रीते थाय छे के, श्री वीरशासनना साधुओने श्री जैनशास्त्रमें समेत मानोपेत जीर्णप्राय कपडां धारण करवां कह्यां छे ने पीलां प्रमुख कपडां धारण करवावालाने महा प्रभाविक स्थिरापद्रगच्छेक मंडन आचार्य श्री वादिवेताल शांतिसूरिजीए उत्तराध्ययनी बृहद्वेषवृत्तिमां विडंबक एटले विगोववावाला आदि शब्दे भांड चेष्टाना करवावाला कह्या छे"
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