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________________ २८४ श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ है । परंतु कोइ भव्य जीव इसके मिथ्या लेखकों वांचके इसके लेखकों सत्य मानकर संसार समुद्रमें परिभ्रमण न करे, इस हेतुसें हम इसके मिथ्या लेखके उत्तर लिखनेमें प्रवृत्त हुए है । (२०) पृष्ट २ में श्रीधनविजयजी लिखता है कि "देवसि प्रतिक्रमणनी आदिमां अने राइ प्रतिक्रमणना अंतमां पूर्वाचार्योए सामान्य प्रकारे अर्थात् जघन्य प्रकारे तथा चैत्यगृहमां नवे प्रकारनी चैत्यवंदना यथाशक्तिए करवी कही छे, पण प्रतिक्रमणमां च्यार थुइए चैत्यवंदना करवी, कोइ जैनमतना शास्त्रोमां कही नथी. " यह लिखना इसका महा अधर्मताका सूचक है । क्योंकि इसने लिखा है कि, प्रतिक्रमणमें च्यार थूइसें चैत्यवंदना किसी भी जैनमतके शास्त्रोमें करनी कही नही है । अब भवभीरु प्राणीयोंकों विचार करना चाहिये कि, श्री जयचंद्रसूरिजी विरचित प्रतिक्रमणगर्भ हेतु तथा महोपाध्याय श्रीमद्यशोविजयजी कृत प्रतिक्रमणादि कितने ही शास्त्रोंमें च्यार थुइकी चैत्यवंदना प्रतिक्रमणमें करनी कही है, सो आगे प्रसंगपर लिखे जावेंगे । अब हम श्रीधनविजयजीसे प्रश्न करते है कि पूर्वोक्त आचार्योपाध्याय जैनमतके है वा नही ? जे कर जैनमतके है तो, पूर्वोक्त अपने लेखका तुजको बडा भारी दंड लेना चाहिये. नही तो इन बडे पुरुषोकी आशातना करनेसें दुर्लभबोघीपणा उपार्जन करके खबर नही किस निगोदमे जाके रुलेगा । इस वास्ते अब भी हमारा हितशिक्षा रुपी अमृतका पान करके पूर्वोक्त वचनोंका प्रायश्चित अंगीकार करके कर्मरुपी शत्रुओंकी फांसीसे नीकल जा आगे तेरी मरजी । (२१) पृष्ट १४४ में तथा और भी कइ जगे धनविजय लिखता है कि “७४ ||४९|| धर्मसंग्रह मानविजयजी उपाध्याय कृत छे. तेमां निश्राकृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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