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________________ २७२ श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ आज्ञा है, और यह जिनाज्ञाको दोष कहते है। (१३) देखो प्रेमाभाई के आगे कैसे बगलेभक्त बन गये । परंतु लोकोसे ज्ञानका मिस करके सैंकडो हजारो रुपइये मंगवाके अनेक लिखारीयोसे अहमदावाद तथा अन्य शहरोमें पुस्तक लिखवाते थे तिनको बांटके रुपइये देते थे और जिस लिखारीके जुम्मे अधिक रुपइये चढ जाते थे तिनके साथ अनेक प्रकारके क्लेश करते थे। तथा कइ लोकोकी जुबानी सुननेसे मालूम हुवा कि तिन लिखारीयोंसें व्याज भी लेते थे। और कितने ही लिखारी हमारे पास आके कहते थे कि श्रीराजेंद्रसूरिजी बडा बेइमान और झूठा है,क्यों कि हमारे लिखे हुए तथा खरीदे हुए पुस्तक जब लेता है तब लिखि हुइ संख्यासे भी गिनती करके हजारो श्लोकोंकी संख्या कमती कर देता है । जब इत्यादि पूर्वोक्त काम करते होवेंगे उस वखत इनोकी बगलाभक्ताइ कहां चली जाती होवेंगी? और नगर शेठ प्रेमाभाईकी तर्फसें जो लेख इनोने इस थोथी पोथीमें लिखा है, सो सर्व मिथ्या है। क्यों कि, नगर शेठ प्रेमाभाईको जैसा मुनि आत्माराम आनंदविजयजीके साथ धर्मराग और उनके कहनेकी प्रतीती थी सो सर्व श्री अहमदावादका संघ तथा शेठजीके साथी लोक जानते है । इस वास्ते इस कपटी छली दंभी मृषावादी श्रीधनविजयजीका झूठ लिखना इसीकों ही दुःखदाइ है। (१४) तथा श्रीधनविजयजी अपने गुरुके दूषण आच्छादन करने के वास्ते श्रीमोहनलालजीकी तो प्रस्तावनाकी पृष्ट २६ में निंदा और पृष्ट २७ में सौजीरामकी स्तुति लिखता है। परंतु सौजीराम तो ढुंढकोकों भी शाता पूछने जाता है, दिगंबरीयोंमें दिगंबर श्रद्धावाला बन जाता है, श्री जिनप्रतिमाकों पुष्प तथा गहना चढाना बुरा जानता है, प्रायः करके ढुंढकोंके सदृश वेष रखता है, कितने ही पुरुषोकों जैन मतकी श्रद्धासें भ्रष्ट करे है, और कितने ही श्रावकोंकी इसने जिनप्रतिमाकी पूजा और सामायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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