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________________ श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - २ I हो तो तुम तो अवश्य मिथ्यामती ठहरोंगें । जे कर तुम अपने ही गुरुवोकी परंपराय समाचारी नही मानते हो तो, क्या चमारोकी परंपराय मानोंगे ? जिस गच्छ मुंड मुंडवाके व्यवच्छेद हूए तीन थूइयोंके मिथ्यामतका फेर उद्धार करा, पूर्वाचार्योका लेख न माना, जिनोके नामसें तुमको टुकडा मिलता है, तिनो ही की निंदा तिनो ही के वचनोंका अनादर करनेसें तुम ऐसे निर्विवेकी सिद्ध होते हो कि, जैसे कोइ मुर्ख जिस वृक्षकी शाखा पर बेठा है तिस हों की शाखा छेदन करता है. इस प्रथम ही हमारे लेखसे जितना तुमने मति व्यामोह मिथ्यात्व मोहके उदयसें महा मृषावाद लिखन रुप थोथी पोथी लिखने में परिश्रम करा है, तिससे तुमने निःकेवल महामोहनीयकर्म उपार्जन करा है, और इस ही लेखसे जितना परिश्रम तुमने थोथी पोथीमें तीन थुइके मतकी स्थापना और चौथी थुइके निषेध वास्ते कार है, सो सर्व ही तुमारी थोथी पोथीका लेख धुंधके बादलोंकी तरे उड गया है । क्यों कि, जब तपगच्छ भट्टारक श्री मुनिसुंदर सूरिजीके शिष्य विबुध हर्ष भूषणजी लिखते है कि, तीन थुइके मानने वाला मिथ्यामत संवत् १२५०में उत्पन्न हुआ है । यह श्राद्ध विधिविनिश्चय ग्रंथ प्राचीन हमारे पास लिखा हुआ है, तथा मुनि श्री वृद्धिचंद्रजीके पास भी है, अन्यत्र भी होवेगा । तथा यह पूर्वोक्त काव्य बहुत अन्य पुस्तकोमें भी हे. श्रीराजेंद्रसूरिधनविजयजी ! तुम क्यों इस मिथ्यामतका उद्धार करते हो ? अब भी इस मिथ्यामतकी प्ररुपणाका प्रायश्चित ले लेवो, और किसी संवेगी मुनि पास उपसंपदा ले लेवो, जिससें तुमारा कल्याण होवे 1 (११) ॥ पृष्ट ३ तथा पृष्ट ५४ ॥ में लिखा है कि, रतनविजयजीनें अभिग्रह पूरा हुवा पीछे क्रिया उद्धार करा, और श्री विजय धरणेंद्रसूरिजीने इनकों सूरिपदकी आज्ञा दिनी इत्यादि । यह श्रीधनविजयका गप्प तो कोइ मिथ्यामती ही मानेगा, क्यों कि, पृष्ट ५३ में लिखा है कि श्रीप्रमोदविजयने २६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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