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________________ २५२ श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ तिनमें लिखा है कि सभामें श्रीआत्मारामजी हारे, और श्रीराजेंद्रसूरिजी जीते, और अहमदावादमे बहुत श्रावक लोक तिन थूइयांका मत मानने लग गए, ए समाचार वांचकर समस्त श्री संघ प्रेमाभाईके वंडेमें एकठा हुआ। (४) इससे आगे चतुर्थस्तुतिनिर्णयमें सर्व हाल लिखा है, हमने जो चतुर्थस्तुतिनिर्णय रचा था, सो भव्य जीवोंके तथा श्रीराजेंद्रसूरिजी और श्रीधनविजयजीके उपकार वास्ते रचा था, परंतु इनकों तो हानीकारक हुआ। परं मेघकी वृष्टिसे सर्व वनस्पतियों प्रफुल्लित होती है। एक जवासा ही सूक जाता है। यह दूषण मेघका नही है, किंतु जवासेकी ही प्रकृति ऐसी है । संवत् १९४७ में मेरा चतुर्मास पंजाब देशके मलेरकोटले नगरमें था, तब श्रीधनविजयजीकी रचनाकी पोथी किसी श्रावकने भेजी । जब हमने वांची, तब मनमें विचार करा कि, कर्म जीवकों कैसे नाच नचाते है ! इन बिचारोंकी क्या दुर्दशा हो रही है ! इस पोथीके लेखसें इनमें क्रोध, मान, छल, कपट, दंभ, इर्ष्या, असत्य, उत्सूत्रभाषण, निविवेकतादि कर्मोने इनके मनमें कितने नाटक रचे है । इन बिचारोंने इस पोथीकी रचनासें अपने आत्माके बहुत गुणोंकी हानी करी है, इनोने मनुष्य जन्म पाके यही काम करना अच्छा माना है, इत्यादि विचार करके हमने उपेक्षा करी । इतनेमें मुंबइसे एक श्रावक मगनलाल दलपतरामकी पत्रिका आइ, उनोंने लिखा कि इस पोथीमे निंदा ईर्ष्या जूठादि बहुत लिखा है । इस वास्ते इसके उतर लिखनेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इस पोथीके वांचनेसे ही बुद्धिमान जान जाएगें कि ऐसे अकलके खाविंदकी यह पोथी रची हुइ है, इस हेतु से हमने इस पोथीका उतर नही लिखा, अब भावनगरकी श्री जैनधर्मप्रसारक सभाकी प्रेरणासें और कितने ही क्षेत्रोंके श्रावक और साधुयोंकी प्रेरणासें इस पोथीके कर्ताकी करतूत मिथ्याभाषण रुप इस पोथीसे ही प्रगट करके लिखते है। इति प्रस्तावना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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