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________________ २२८ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ जो है सो दधि अक्षतादिक है और भावमंगलजो है सो एकांतिक अत्यंतिक है, अर्थात् एकांत सुखदायि और अंतरहित है. शारीरी मानसिक दुःखोके उपशामक होने करके मैरेकों जो संसारमें दूर करे सो मंगल है, इत्यादि शब्दार्थ है. यह मंगल अरिहंतादि विषय भेदसें पांच प्रकारके हैं. सोइ दिखाते है. एक अरिहंत, दूसरा सिद्धा, तीसरा साधु, चोथा श्रुत, पांचमा धर्म, तिनमें सर्व जीवोंके शत्रुभूत ऐसे जो अष्टप्रकारके कर्म है तिनका जिनोने नाश करा है, सो अरिहंत जानना, अरु जिनोने कर्म बंधन दग्घ करे है वो सिद्ध जानना, तथा जो ज्ञानादि योगकरके निर्वाणकों साधते है वो साधु जानना, जो सुणीयें सो श्रुत कहना, वो श्रुत अंगोपांगादि विविध प्रकारके आगम जानना, तथा जो दुर्गतिमें पडते हूए जीवोंकू धारण करे सो धर्म है, इहां च शब्द जो है सो समुच्चयार्थमें है, अन्यत्र चारही मंगल कहे है, और यहां अनुष्ठानरुप धर्मका प्रारंभ होनेसें तिस धर्मकों पांचमा अनुष्ठान कहने दोष नही है. तथा सम्यग् सो अविपरीत दृष्टी तत्त्वार्थश्रद्धानरूप वो है जिनोकों सो सम्यग्दृष्टी देवता यज्ञ, अंबा ब्रह्मशांति, शासनदेवतादिक जानना. वो क्या करे सो कहते है. देवो क्या देवे ! समाधि और बोधि तहां समाधि दो प्रकारकी है, एक द्रव्यसमाधि, दूसरी भावसमाधि तिसमें द्रव्यसमाधि यह है कि जिन द्रव्योंका परस्पर अविरोधिपणा है जैसें दधी और गुड, तथा सक्कर (मिसरी) और दूध, स्नेहवंत भाइ और मित्र, मलोत्सर्ग करके मूतना इत्यादिका अविरोध है, और भावसमाधि जो है सो रागद्वेष रहितकों, स्नेहादिसें अनाकूलकों, संयोग, वियोग करके अविधुरकों, हर्षविषाद रहितकों, शरत्कालके सरोवरकी तरें निर्मलमनवाले ऐसे जो साधु वा श्रावक है तिनकों होती है यह समाधिही सर्व धर्मोका मूल है. जैसें वृक्षका मूल स्कंध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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