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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - १
अभ्युच्चय शेष कहने योग्य जो रहा है सोइ कहते है || मिच्छत गुण इत्यादि १००५ गाथाकी व्याख्या ॥ मिथ्यात्वगुणसहित प्रथम गुणस्थानमें वर्त्तनेवाले एैसे नरेश्वर जो राजादिकों है तिनकों जो पूजा नमस्कारादिक करते है सो तो इस लोक के प्रयोजन करते है. परंतु सम्यक्त्वसहित सम्यक्दृष्टि ब्रह्मशांत्यादि देवतांकी पूजा, नमस्कार कायोत्सर्गादि जो करते है, सो कुछ मूढ अज्ञानी नही करते है. इति गाथार्थ: ॥
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(६९) अब इस जीवानुशासन ग्रंथके लेखकों जो कोइ हठग्राही, अनंतसंसारी, मिथ्यादृष्टि, दुर्लभबोधी जीव न माने तो उसकों जैनसंप्रदायवाले क्योंकर जैनी कहेगा ? जेकर उन्ने अपने मुखसें आपकों जैनी नाम ठहराय रखा तिस्सें क्या वो जैन बन गया. श्रीवीतरागके वचनोपर श्रद्धधान होने सिवाय जैन नही हो सकता है. पूर्वपक्षीका प्रश्न :- हमने श्रीरत्नविजयजी अरु श्रीधनविजयजीके मुखसें औसा सुना है कि हमतो सिद्धांतोंकी पंचांगी मानते है. परंतु अन्य प्रकरणादि कुछभी नही मानतें है.
उत्तर :- जैसा मानना इनोका बहोत बेसमजीका है क्योंकि श्री अभयदेवसूरिजीने श्रीस्थानांगसूत्रकी वृत्तिमें श्रुतज्ञानकी प्राप्तिके सात अंग कहे है तद् गाथा ॥ १ सूत्र, २ निर्यूक्ति, ३ भाष्य, ४ चूर्णि, ५ वृत्ति, ६ परंपराय, ७ अनुभव, यह लेखसें जब पंचांगीमें पूर्वाचार्योकी परंपरा माननी कही है, और तिसकोंभी श्रीरत्नविजयजी अरु श्रीधनविजयजी अपने मन:कल्पित नवीन पंथ निकालनेका इरादा पूर्ण करनेके वास्ते नही मानते हैं, तबतो इनकों पंचांगी माननेवाले भी किसतरेंसें सुज्ञजन कह सकते है ? क्योंकी श्रीस्थानांग सूत्रकी वृत्ति यहभी सूत्रोंको पांच अंगमेंसें एक अंग है तो फेर वृत्तिमें करा हूआ कथनभी इनोकों माननेमें जब अनुकूल नही होता
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