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________________ १९२ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ जिस तपमें कषायका निरोध होवे, ब्रह्म जिन पूजन होवें, और अशनभोजनका त्याग होवे, सो सर्व तप भोले लोकोंमें होता है, क्योंकि भोले लोक प्रथम ऐसे तपमें प्रवृत्त हुए भये अभ्यासके बलसे पीछे कर्मक्षयके करने वास्तेभी तप करनेमें प्रवृत्त होते है. परंतु आदिहीसें कर्मक्षय करण वास्ते भोले होनेसें प्रवृत्त नही होते है. और जो सद्बुद्धिवाले है वे तो चाहो पूर्वोक्त कोइभी तप करे सो सब मोक्षके वास्तेही करते है, यदाह || उत्तम पुरुषोंकी जो मति है सो मोक्षार्थमें ही घटे है, और मोक्षार्थकी जो घटना है सो आगमके विधि करकेही है. क्योंके आगम सिवाय जो वे आलंबन करते है, सो सब अनाभोग हेतुक है ।। इति गतार्था ॥ ऐसें न कहना के देवताके उद्देश करके जो तप करणा सो सर्वथा निःफलही है, अथवा इस लोककाही फल है, किंतु चारित्रकाभी हेतु है. अब यह तप जैसें चारित्रका हेतु है ? सो दिखाते है॥ एवं पडिवत्ति इत्यादि गाथाकी व्याख्या ॥ ऐसें उक्त साधर्मिक देवतायोंका कुशल अनुष्ठानमें निरुपसर्गतादि हेतु करके, प्रतिपत्ति तप रुप उपचार करके, तथा इस उक्त रुपसें कषायादि निरोध प्रधान तपसें, पाठांतर करके ऐसे उक्तकरण करके, मार्गानुसारी होनेसें, सिद्ध पंथके अनुकूल अध्यवसायसें, "चरणं चारित्रं" आप्तका कथन करा हूआ चारित्र संयम बहुत महानुभाव जीवोंकों पूर्वकालमें प्राप्त हुआ है. इति गाथार्थः ॥ तथा सव्वंगसुंदरं इत्यादि दो गाथाकी व्याख्या ॥ सर्वांग सुंदर है जिस तप विशेषसें सो सर्वांग सुंदर तप. यहां तथा शब्द जो है सो समुच्चयार्थमें है. तथा जो रुजाणां रोगोंका अभाव होना उनकों निरुज कहेना सोइ शिखाकी तरें प्रधान फल करके जिहां है सो निरुजशिखातप जानना. तथा परमोत्तम भुषण आभरण होवें जिससेंती सो परमभूषण तप जानना. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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