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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ है, तो जब ग्रंथोंका लेख देखे तब तो तिनोंकों किंचित् मात्रभी कदाग्रह नही रहता है. इस वास्ते हम बहुत नम्रतापूर्वक श्रीरत्नविजयजी अरु श्रीधनविजयजीसें कहते हैंकि प्रथमतो आप किसी त्यागी गुरुके पास फेरके संयम लीजीए, अर्थात् दीक्षा लीजीए, पीछे साधुसमाचारी, जिनसमाचारी, जगच्चंद्रसूरिप्रमुख पूर्वपुरुषोंकों जिनकों तुमनेही अपने आचार्य माने है तिनकी तथा तिनोके शिष्य परंपरायकी समाचारी मानो. यथाशक्ति संयमतपमें उद्यम करो और जैनमतसें विरुद्ध जो तीन थुईकी प्ररुपणासे कितनेक भोले भव्य जीवोकू व्युद्ग्राही करा है. तिनोकों फेर सत्य सत्य जो चार थुईयोंका मत है सो कहकर समजावो, और उत्सूत्र प्ररुपणाका मिथ्या दुष्कृत देवो, तो अवश्यही तुमारा मनुष्य जन्म सफल हो जावेगा, नही तो जिन वचनसें विरुद्ध चलनेके लीये कौन जाने कैसी कैसी अवस्था यह संसारमें भोगनी पडेगी. सो ज्ञानीकों मालुम है, और आपने क्षयोपशम मुजब आपनभी जानते है.
प्रश्न :- प्रथम तुम हमकों यह बात कहोकि सम्यग्दृष्टि देवतादिकके कायोस्सर्ग करणेंसें क्या लाभ होता है ? और किसि किसि शास्त्रमें सम्यग्दृष्टी देवतादिकोका मानना कायोत्सर्ग करना लिखा है, और किस किस श्रावक साधुने यह कार्य करा है, सो सब हमकू समजावो ।
उत्तर :- श्रीपंचाशक सूत्रके एकोनविंशति पंचाशकाका पाठमें इसी तरेसें लिखा है, सो आपको लिख बताते है.
(६२) तथा च तत्पाठः ॥ किंच अण्णो वि अथिचित्तो, तहा तहा देवयाणिओएण ॥ मुद्धजणाणहिओ खलु, रोहिणीमाई मुणेयव्वो ॥२३॥ व्याख्या ॥ अन्यदपि अस्ति विद्यते चित्र विचित्रं तप इति गम्यते तथा तेन तेन प्रकारेण लोकरूढेण देवतानियोगेन देवतोद्देशेन मुग्धजनानामव्युत्पन्नबुद्धिलोकानां हितं खलु पथ्यमेव विषयाभ्यासरु
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